प्राचीन भारत

पुरापाषाण काल | Palaeolithic period

पुरापाषाण काल | Palaeolithic period

पाषाण युग इतिहास का वह काल है जब मानव का जीवन पत्थरों पर अत्यधिक आश्रित था। उदाहरनार्थ पत्थरों से शिकार करना, पत्थरों की गुफाओं में शरण लेना, पत्थरों से आग पैदा करना इत्यादि। इसके तीन चरण माने जाते हैं, पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल एवं नवपाषाण काल जो मानव इतिहास के आरम्भ (25 लाख साल पूर्व) से लेकर काँस्य युग तक फ़ैला हुआ है।

संपूर्ण पुरापाषाण काल ( 5लाख ई. पू.- 10 हजार ई. पू. ) हिम युग के अंतर्गत आता है अत: पुरापाषाण काल में मानव के अवशेष मुख्य रूप से प्रायद्वीप /दक्षिणी भारत  में मिलते हैं क्योंकि यहाँ पत्थरों की मात्रा अधिक मिलती है तथा वातावरण भी रहने के अनुकूल है।(बर्फ नहीं , पत्थरों की बहुलता )

इस काल में मनुष्य अपना जीवन – यापन खाद्यान संग्रह तथा पशुओं का शिकार करके करता था।

पुरापाषाण काल का मानव पर्वत की कन्दराओं में रहता था। ऐसे शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं ।

पुरापाषाण काल में मानव के औजार  और  हथियार कुल्हाङी , पत्थर , तक्षणी , खुरचनी, छेदनी आदी थे, जो परिष्कृत और तीक्ष्ण नहीं थे ।

आग का आविष्कार इसी काल में हुआ था ।

पुरापाषाण काल में पशु जिनसे मानव परिचित था -बंदर, हिरण , बकरी, भैंस , गाय-बैल , नीलगाय , सुअर , बारहसिंगा, गैंडा , हाथी आदि थे, जिनके अवशेष शैलाश्रय की कलाकृतियों से उपलब्ध होते हैं ।

इस काल का मानव कछुओं एवं मछलियों से भी परिचित था और विभिन्न प्रकार के फलों , पुष्पों ,कन्दमूल से भी परिचित था ।

पुरापाषाण काल के प्रमुख स्थल –

  • सोहन नदी  घाटी (सिंधु की छोटी सहायक नदी ) – इस  स्थल से पुरापाषाण उपकरणों की खोज 1928 ई. में डी. एन . वाहिया ने की थी ।
  • व्यास तथा सिरसा नदियों के तटीय क्षेत्रों से पुरापाषाण काल के प्रमुख स्थल मिले हैं ।
  • पहलगांव, अडियाल,बलवाल,चौण्टारा आदि इस क्षेत्र की प्रमुख बस्तियां थी।
  • राजस्थान के थार – मरुस्थल के डीडवाना क्षेत्र से में  लूनी नदी, गंभीरा नदी, चंबल नदी की घाटीयों में पुरापाषाणकालीन पुरातात्विक बस्तियां प्राप्त हुई हैं ।
  • गुजरात क्षेत्र में साबरमती.माही, भद्दर नदियों के किनारे पुरापाषाण कालीन बस्तियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
  • नर्मदा नदी क्षेत्र व विन्ध्य पर्वत माला में पुरापाषाण कालीन बस्तियों के अवशेष मिले हैं जिनमें भीमबेटका (म.प्र.) प्रसिद्ध है।
  • विन्ध्य से दक्षिण ( ताप्ती , गोदावरी , भीमा , कृष्णा नदियों के किनारे ) पुरापाषाणकालीन अनेक स्थल ( नवासा, कोरेगांव , शिकारपुर ) आदि स्थित हैं।
  • सुदूर दक्षिण में कृष्णा की सहायक नदीयों के तटों पर पुरापाषाणयुगीन अनेक बस्तियों के अवशेष मिले हैं जिनमें बागलघोट , पैनियार , गुड्डियम प्रमुख हैं।
  • बिहार में रासे नदी के तट पर ( सिंहभूम ) ,बंगाल में दामोदर तथा स्वर्ण रेखा नदियों के तटों पर पुरापाषाणीय अवशेष मिले हैं।

पुरापाषाण काल से सम्बन्धित तथ्य

  • पाषाण काल की आरंभिक अवस्था अर्थात पुरापाषाण का नाम यूनानी शब्दों के आधार पर रखा गया है।
  • सबसे आदिम व्यक्ति को पुरापाषाणकालीन मानव कहा गया है। भारत में ज्यातर अवशेष चमकीले पत्थर के निर्मित हैं , इसी कारण इन मानवों को चमकीले पत्थर के मानव कहा गया है।
  • पुरापाषाणकालीन मानव ने अग्नि जलाना सीख लिया था।
  • करनूल जिले की गुफाओं में अग्नि के चिन्ह मिले हैं ।
  • हड्डी के उपकरणों का प्रयोग ।
प्रागैतिहासिक भारत को 4 भागों में विभक्त किया गया है :-
  1. पूर्व पाषाण काल
  2. मध्य पाषाण काल
  3. उत्तर पाषाण काल
  4. धातु पाषाण काल

 

1. पुरापाषाण काल (Paleolithic Era) –

पुरापाषाण काल (Palaeolithic) प्रौगएतिहासिक युग का वह समय है जब मानव ने पत्थर के औजार बनाना सबसे पहले आरम्भ किया। यह काल आधुनिक काल से 25-20 लाख साल पूर्व से लेकर 12,000 साल पूर्व तक माना जाता है। इस दौरान मानव इतिहास का 99% विकास हुआ। इस काल के बाद मध्यपाषाण युग का प्रारंभ हुआ जब मानव ने खेती करना शुरु किया था।
भारत में पुरापाषाण काल के अवशेष तमिल नाडु के कुरनूल, कर्नाटक के हुँस्न्गी, ओडिशा के कुलिआना, राजस्थान के डीडवानाके श्रृंगी तालाब के निकट और मध्य प्रदेश के भीमबेटका में मिलते हैं। इन अवशेषो की संख्या मध्यपाषाण काल के प्राप्त अवशेषो से बहुत कम है।
भारत मे इसके अवशेष सोहन, बेलन तथा नर्मदा नदी घाटी मे प्राप्त हुए है।
भोपाल के पास स्थित भीमबेटका नामक चित्रित गुफाए, शैलाश्रय तथा अनेक कलाकृतिया प्राप्त हुई है।
विशिष्ट उपकरण- हैण्ड-ऐक्स (कुल्हाड़ी), क्लीवर और स्क्रेपर आदि।

2. मध्यपाषाण काल (Mesolithic Era) –
मध्यपाषाण काल (Mesolithic) मनुष्य के विकास का वह अध्याय है जो पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल मे मध्य मे आता है। इतिहासकार इस काल को 12,000 साल पूर्व से लेकर 10,000 साल पूर्व तक मानते है।
12,000 साल से लेकर 10,000 साल पूर्व तक। इस युग को माइक्रोलिथ (Microlith) अथवा लधुपाषाण युग भी कहा जाता है।

नवपाषाण काल (Neolithic Era) –
10,000 साल से 3300 ई.पू. तक इस काल मे मानव कृषि करना सिख गया था

पाषाण युग

पुरापाषाण काल

औजार- हाथ से बने अथवा प्राकृतिक वस्तुओ का हथियार/औजार के रूप मे उपयोग – भाला, कुल्हाड़ी, धनुष, तीर, सुई, गदा
अर्थव्यवस्था- शिकार एवं खाद्य संग्रह
शरण स्थल- अस्थाई जीवन शैली – गुफ़ा,
समाज- अस्थाई झोपड़ीयां मुख्यता नदी एवं झील के किनारे 25-100 लोगो का समुह (अधिकांशतः एक ही परिवार के सदस्य)

मध्यपाषाण काल

मध्यपाषाण काल (known as the Epipalaeolithic in areas not affected by the Ice Age (such as Africa))
औजार- हाथ से बने अथवा प्राकृतिक वस्तुओ का हथियार/औजार के रूप मे उपयोग- धनुष, तीर, अर्थव्यवस्था- मछली के शीकार एवं भंडारण के औजार, नौका
समाज- कबिले एवं परिवार समुह
धर्म- मध्य पुरापाषाण काल के आसपास मृत्यु पश्चात जीवन में विश्वास के साक्ष्य कब्र एवं अन्तिम संस्कार के रूप मे मिलते है।

उत्तर पाषाण काल-

हजारों वर्षो तक पवूर् पाषाण कालीन जीवन व्यतीत करने के बाद धीरे-धीरे मानव सभ्यता का विकास हुआ व उत्तर पाषाण काल का प्रारम्भ हुआ । इस काल में भीमानव पाषाणो का ही प्रयोग करता था, किन्तु इस काल में निर्मित हथियार पहले की अपेक्षा उच्च कोटि के थे । पाषाण काल का समय मानव जीवन के लिये विशेष अनुकूल था । इस काल के मनुष्य अधिक सभ्य थे । उनका जीवन सुख मय हो गया था । उन्होंने पत्थर व मिट्टी को जोड़कर दीवारे व पेड़ की शाखाओं व जानवरों की हड्डियों से छतों का निर्माण किया एवं समूहों में रहना प्रारम्भ कर दिया । मिट्टी के बर्तन, वस्त्र बुनना आदि प्रारम्भ कर दिया । हथियार नुकीले सुन्दर हो गये। इस काल के औजार सेल्ट, कुल्हाड़ियाँ, छेनियाँ, गदायें, मूसला, आरियाँ इत्यादि थे । उत्तर पाषाण कालीन लोग पत्थर को रगड़कर आग जलाने व भोजन पकाने की कला जानते थे । इस काल में धार्मिक भावनायें भी जागृत हुर्इ । प्राकृतिक पूजा वन, नदी आदि की करते थे ।

नवपाषाण युग में मानव को खेती-बाड़ी का ज्ञान था । वह पशुपालन भी करता था। वह उच्च स्तर के चिकने औजार बनाता था । इस युग में मानव कुम्हार के चाक का उपयोग भी करता था । इस परिवर्तन और उन्नति को ‘‘नवपाषाणा क्रान्ति’’ भी कहा जाता है ।

धातु पाषाण काल– 

धातु यगु मानव सभ्यता के विकास का द्वितीय चरण था । इस युग में मनुष्य ने धातु के औजार तथा विभिन्न वस्तुयें बनाना सीख लिया था । इस युग में सोने का पता लगा लिया था एवं उसका प्रयोग जेवर के लिये किया जाने लगा । धातु की खोज के साथ ही मानव की क्षमताओं में भी वृद्धि हुर्इ । हथियार अधिक उच्च कोटि के बनने लग गये । धातुकालीन हथियारों में चित्र बनने लगे। इस युग में मानव ने धातु युग को तीन भागों में बांटा गया:-

  1. ताम्र युग
  2. कांस्य युग
  3. लौह युग

1. ताम्र युग- इस युग में ताबें का प्रयोग प्रारम्भ हुआ । पाषाण की अपेक्षा यह अधिक सुदृढ़ और सुविधाजनक था । इस धातु से कुल्हाड़ी, भाले, तलवार तथा आवश्यकता की सभी वस्तुयें तॉबे से बनार्इ जाने लगी । कृषि कार्य इन्ही औजारों से किया जाने लगा ।

2. कांस्य युग:- इस यगु में मानव ने तांबा और टिन मिलाकर एक नवीन धातु कांसा बनाया जो अत्यंत कठोर था । कांसे के औजार उत्तरी भारत में प्राप्त हुये इन औजार में चित्र भी थे । अनाज उपजाने व कुम्हार के चाक पर बर्तन बनाने की कला सीख ली थी । वह मातृ देवी और नर देवताओं की पूजा करता था । वह मृतकों को दफनाता था और धार्मिक अनुष्ठानों में विश्वास करता था । ताम्र पाषाण काल के लोग गांवों में रहते थे ।
3. लौह युग- दक्षिण भारत में उत्तर पाषाण काल के उपरान्त ही लौह काल प्रारम्भ हुआ। लेकिन उत्तरी भारत में ताम्रकाल के उपरान्त लौह काल प्रारम्भ हुआ । इस काल में लोहे के अस्त्र शस्त्रों का निर्माण किया जाने लगा । ताम्र पाषाण काल में पत्थर और तांबे के औजार बनाये जाते थे ।

प्रागैतिहासिक कला- 

प्रागैतिहासिक कला का पहला प्रमाण 1878 में इटली और फ्रांस में मिला। भारत में प्रागैि तहासिक गुफाएं  जिनकी चट्टानों पर चित्रकारी की हुर्इ है, आदमबेटका, भीमबेटका, महादेव, उत्तरी कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश के कुछ भागों में पार्इ जाती है । दो पत्थर की चट्टान जो चित्रित है, बुर्जहोम में भी पार्इ गर्इ । इस समय के चित्र प्रतिदिन के जीवन से सम्बन्धित थे । हाथी, चीता, गैंडा और जंगली सूअर के चित्र मिले, जिन्हें लाल, भूरे और सफेद रंगो का प्रयोग करके दिखाया गया है । कुछ चित्रों को चट्टानों को खुरेद कर बनाया गया है। प्रागैतिहासिक काल के चित्र शिकार के है, जिनमें पशुओं की आकृति एवं शिकार करते हुये दिखाया गया है ।

प्रागैतिहासिक कला
आरम्भिक पुरापाषण युग की हाथ की कुल्हाड़ियाँ तथा चीरने फाड़ने के औजार
प्रागैतिहासिक कला


शैल चित्र –

ऐसे ही शैल चित्र उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जिले के विंध्यपहाड़ी के कंदराओं में भी मिला। जिसे सीता कोहबर नामक स्थान पर 12 फरवरी 2014 को एक गुमनाम पत्रकार शिवसागर बिंद ने खोज निकाला था। जिसकी पुष्टी के लिए उ० प्र० राज्य पुरातत्व विभाग के क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारियों ने की। जनपद मुख्यालय मीरजापुर से लगभग 11-12 किलोमीटर दूर टांडा जलप्रपात से लगभग एक किलोमीटर पहले “सीता कोहबर” नामक पहाड़ी पर एक कन्दरा में प्राचीन शैल-चित्रों के अवशेष प्रकाश में आये हैं। शिव सागर बिंद, जन्संदेश टाइम्स, मीरजापुर की सूचना पर उ० प्र० राज्य पुरातत्व विभाग के क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारी के साथ उक्त शैलाश्रय का निरीक्षण किया और शैलचित्रों को प्राचीन तथा ऐतिहासिक महत्त्व का बताया।

लगभग पांच मीटर लम्बी गुफा, जिसकी छत 1.80 मीटर ऊँची तथा तीन मीटर चौड़ी है में अनेक चित्र बने हैं। विशालकाय मानवाकृति, मृग समूह को घेर कर शिकार करते भालाधारी घुड़सवार शिकारी, हाथी, वृषभ, बिच्छू तथा अन्य पशु- पक्षियों के चित्र गहरे तथा हल्के लाल रंग से बनाये गए हैं, इनके अंकन में पूर्णतया: खनिज रंगों ( हेमेटाईट को घिस कर )का प्रयोग किया गया है। इस गुफा में बने चित्रों के गहन विश्लेषण से प्रतीत होता है कि इनका अंकन तीन चरणों में किया गया है। प्रथम चरण में बने चित्र मुख्यतया: आखेट से सम्बन्धित है और गहरे लाल रंग से बनाये गए हैं , बाद में बने चित्र हल्के लाल रंग के तथा आकार में बड़े व शरीर रचना की दृष्टी से विकसित अवस्था के प्रतीत होते हैं साथ ही उन्हें प्राचीन चित्रों के उपर अध्यारोपित किया गया है।

यहाँ उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र (मीरजापुर व सोनभद्र) में अब तक लगभग 250 से अधिक शैलचित्र युक्त शैलाश्रय प्रकाश में आ चुके हैं, जिनकी प्राचीनता ई० पू० 6000 से पंद्रहवी सदी ईस्वी मानी जाती है। मीरजापुर के सीता कोहबर से प्रकाश में आये शैलचित्र बनावट की दृष्टि से 1500 से 800 वर्ष प्राचीन प्रतीत होते हैं। इन क्षेत्रों में शैलचित्रों की खोज सर्वप्रथम 1880-81 ई० में जे० काकबर्न व ए० कार्लाइल ने ने किया तदोपरांत लखनऊ संग्रहालय के श्री काशी नारायण दीक्षित, श्री मनोरंजन घोष, श्री असित हालदार, मि० वद्रिक, मि० गार्डन, प्रोफ़० जी० आर० शर्मा, डॉ० आर० के० वर्मा, प्रो० पी०सी० पन्त, श्री हेमराज, डॉ० जगदीश गुप्ता, डॉ० राकेश तिवारी तथा श्री अर्जुनदास केसरी के अथक प्रयासों से अनेक नवीन शैल चित्र समय-समय पर प्रकाश में आते रहे है। इस क्रम में यह नवीन खोज भारतीय शैलचित्रों के अध्ययन में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी मानी जा सकती है।

 

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