UK Board 10th Class Social Science – (अर्थशास्त्र) – Chapter 3 मुद्रा और साख
UK Board 10th Class Social Science – (अर्थशास्त्र) – Chapter 3 मुद्रा और साख
UK Board Solutions for Class 10th Social Science – सामाजिक विज्ञान – (अर्थशास्त्र) – Chapter 3 मुद्रा और साख
पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1 – जोखिम वाली परिस्थितियों में ऋण कर्जदार के लिए और समस्याएँ खड़ी कर सकता है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर— अधिक जोखिम वाली परिस्थितियों में ऋण कर्जदार की समस्याओं को हल करने के बजाय उसके समक्ष नई-नई समस्याएँ खड़ी कर सकता है। इस तथ्य को निम्नलिखित उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
- यदि ऋणदाता साहूकार, महाजन अथवा गाँव का ब्याजखोर व्यापारी है तो वह ऋण देने से पूर्व ऋणाधार की माँग कर सकता है। इसका अर्थ है कि ऋणदाता ऋण लेने वाले से भूमि, भवन, पशु या आभूषण अथवा अन्य कोई कीमती वस्तु को गिरवी रखने को कह सकता है। यह सम्पत्ति ऋण के लिए उस समय तक गारण्टी होती है जब तक कि ऋण लेने वाला ऋण का भुगतान नहीं कर देता। निर्धारित शर्तों के अनुसार ऋण के न लौटाने पर ऋणदाता बन्धक सम्पत्ति को बेचने का अधिकार रखता है। बाजार-मूल्य पर इस सम्पत्ति का मूल्य ऋण व ब्याज से बहुत अधिक होता है। इस प्रकार, यदि ऋणी ऋण न लौटा पाए तो इस सम्पत्ति की नीलामी हो जाती है जिससे एक ओर तो ऋणी को आर्थिक हानि होती है और दूसरी ओर उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा गिरती है।
- जब ऋण लेने वाला किसी साहूकार अथवा महाजन से, जो एक कृषि व्यापारी भी है, ऊँची ब्याज दर पर ऋण लेता है तो कभी – कभी उसे ऋण व ब्याज की अदायगी के लिए प्रचलित कीमतों पर अपनी फसल तुरन्त बेचनी पड़ती है जिससे उसे भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ती है, क्योंकि यदि वह उसका संग्रह कर लेता तो बाद में ऊँची कीमत पर बेच सकता था ।
- ऋण अदा न कर पाने पर यदि ऋणदाता न्यायालय चला जाता तो मुकदमों आदि पर कर्जदार को भारी व्यय करना पड़ता है।
- यदि कर्जदार को ऋण व व्याज अदा करने के लिए बार-बार ऋण लेना पड़े तो वह ऋण-जाल में फँस जाता है जिससे जीवन भर बाहर निकलना उसके लिए कठिन हो जाता है।
प्रश्न 2 – मुद्रा आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की समस्या को किस तरह सुलझाती है? अपनी ओर से उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर – मुद्रा आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की समस्या का सरलता से समाधान कर देती है। इसका कारण यह है कि मुद्रा में सर्वग्राह्यता का गुण पाया जाता है और इसलिए मुद्रा विनिमय के माध्यम का कार्य करती है तथा वस्तुओं व सेवाओं के बदले सभी के द्वारा स्वीकार की जाती है।
उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण—सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि ‘दोहरे संयोग की समस्या’ क्या है। माना एक गेहूं विक्रेता गेहूँ के बदले मछली लेना चाहता है। सबसे पहले गेहूँ विक्रेता को ऐसे मछली पालक को ढूँढना होगा जो न केवल मछली बेचना चाहता हो बल्कि उसके बदले में गेहूँ भी खरीदना चाहता हो अर्थात् दोनों पक्ष एक-दूसरे से चीजें खरीदने और बेचने में सहमति रखते हों। इसे ही दोहरा संयोग कहा जाता है अर्थात् एक व्यक्ति जो वस्तु बेचने की इच्छा रखता है, वही वस्तु दूसरा व्यक्ति खरीदने की भी इच्छा रखता हो । वस्तु-विनिमय प्रणाली में जहाँ मुद्रा का उपयोग किए बिना वस्तुओं का विनिमय होता है, ‘आवश्यकताओं का दोहरा संयोग’ होना अनिवार्य विशिष्टता है किन्तु साथ ही ‘दोहरे संयोग का मिलना’ एक महत्त्वपूर्ण कठिनाई भी।
मुद्रा द्वारा इस कठिनाई का निराकरण हो गया है। मुद्रा महत्त्वपूर्ण मध्यवर्ती भूमिका अदा करके ‘आवश्यकताओं के दोहरे संयोग’ की आवश्यकता को खत्म कर देती है। अतः अब गेहूँ विक्रेता के लिए यह है आवश्यक नहीं है कि वह ऐसे मछली पालक को ढूंढे जो न केवल उसका | गेहूँ खरीदे अपितु साथ-साथ वह उसको मछली भी बेचे। वह किसी भी क्रेता को मुद्रा के बदले गेहूँ बेच सकता है और प्राप्त मुद्रा से किसी भी मछली पालक से मछली खरीद सकता है।
प्रश्न 3 – अतिरिक्त मुद्रा वाले लोगों और जरूरतमन्द लोगों के बीच बैंक किस तरह मध्यस्थता करते हैं?
उत्तर – अतिरिक्त मुद्रा वाले लोगों और जरूरतमन्द लोगों के बीच बैंक निम्न प्रकार मध्यस्थता करते हैं—
- अतिरिक्त मुद्रा वाले लोग अपनी मुद्रा को बैंक में अपने खाते खोलकर जमा करते हैं। बैंक इन जमाओं को स्वीकार करते हैं और इन पर ब्याज भी देते हैं। लोग अपनी सुविधानुसार अपने उपयोग के लिए मुद्रा को निकाल भी सकते हैं। ये जमाएँ ‘माँग जमा’ ( demand deposit) कहलाती हैं, क्योंकि इस मुद्रा को बैंक से माँग पर निकाला जा सकता है।
- बैंक इस जमाराशि को अन्य जरूरतमन्द लोगों को ऋण देने के लिए प्रयोग करते हैं। बैंक जानते हैं कि सभी जमाकर्त्ता अपनी जमाओं को एक साथ नहीं निकालेंगे। अतः वे अपने अनुभव के आधार पर अथवा केन्द्रीय बैंक के आदेशानुसार अपनी जमाओं का एक छोटा-सा हिस्सा अपने पास जमा (reserve) के रूप में रख लेते हैं और शेष जमाराशि को ऋण देने के लिए प्रयोग कर लेते हैं।
इस प्रकार बैंक दो वर्गों के मध्य मध्यस्थता का कार्य करते हैं। इसमें प्रथम वर्ग जमा करने वालों का होता है और द्वितीय वर्ग ऋण लेने वालों का। जमाकर्त्ता अपनी अतिरिक्त राशि को बैंक में जमा करते हैं और ऋणी आवश्यकता पड़ने पर ऋण लेते हैं। बैंक ऋणों पर, जमा पर दिए जाने वाले ब्याज से अधिक ब्याज वसूल करते हैं । ऋणी से लिए गए ब्याज और जमा पर दिए गए ब्याज का अन्तर ही बैंकों की आय का प्रमुख स्रोत है।
प्रश्न 4 – 10 रुपये के नोट को देखिए। इसके ऊपर क्या लिखा है ? क्या आप इस कथन की व्याख्या कर सकते हैं?
उत्तर – 10 रुपये के नोट पर लिखा होता है— भारतीय रिजर्व बैंक केन्द्रीय सरकार प्रत्याभूत: मैं धारक को 10 रुपये देने का वचन देता हूँ। इस पर भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के हस्ताक्षर होते हैं।
इस कथन का अर्थ यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक को, जो देश का केन्द्रीय बैंक है, केन्द्र सरकार की ओर से नोट निर्गमन का अधिकार प्राप्त है। वह इस नोट के धारक को प्रत्येक परिस्थिति में 10 रुपये देने का वादा करता है। इससे लोगों में मुद्रा के प्रति विश्वसनीयता उत्पन्न होती है। इसी आधार पर मुद्रा में सर्वग्राह्यता का गुण पाया जाता है । यह मुद्रा के अवमूल्यन के विरुद्ध सुरक्षा है।
प्रश्न 5 – हमें भारत में ऋण के औपचारिक स्रोतों को बढ़ाने की क्यों जरूरत है?
उत्तर- औपचारिक ऋण के अन्तर्गत बैंकों और सहकारी समितियों से लिए गए ऋण आते हैं। औपचारिक ऋणों के स्रोतों पर भारतीय रिजर्व बैंक नजर रखता है।
अनौपचारिक क्षेत्रक में साहूकार, व्यापारी, मालिक, रिश्तेदार मित्र आदि आते हैं। इन ऋणदाताओं की गतिविधियों की देखरेख करने वाली कोई संस्था नहीं है। वे मनमानी ब्याज दरों पर ऋण दे सकते हैं। ये अपना ऋण वसूलने के लिए प्रत्येक अनुचित साधन अपना सकते हैं इन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है ।
इन कारणों को देखते हुए भारत में ऋण के औपचारिक स्रोतों को बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके माध्यम से लोगों की आय बढ़ सकती है और अनेक लोग अपनी आवश्यकताओं के लिए सस्ता कर्जा ले सकते हैं। सस्ता और सामर्थ्य अनुसार कर्जा देश के विकास के लिए अति आवश्यक है।
प्रश्न 6 – गरीबों के लिए स्वयं सहायता समूहों के संगठनों के पीछे मूल विचार क्या हैं? अपने शब्दों में व्याख्या कीजिए।
उत्तर- गरीबों के लिए स्वयं सहायता समूहों के संगठनों के पीछे मूल विचार यह हैं कि गरीब लोग बचत करें, बचत को एकत्रित करें और आवश्यकता पड़ने पर उसमें से ऋण लें। इसके अन्तर्गत 15 से 20 लोग एक समूह बना लेते हैं। वे नियमित रूप से मिलते हैं और अपनी बचतों को संगृहीत करते हैं। यह बचत राशि धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। यह समूह अपने सदस्यों को ऋण देकर उनकी जरूरतों को पूरा करता है। इस ऋण की सहायता से लोग अपना छोटा-मोटा रोजगार प्रारम्भ कर सकते हैं। इस सम्बन्ध में निर्णय सभी सदस्यों द्वारा मिलकर लिए जाते हैं। ये ऋण ऋणाधार के बिना मिलते हैं। इस प्रकार लोगों को स्वावलम्बी बनने में सहायता मिलती है। इसके अतिरिक्त ये सामान्य समस्याओं पर भी विचार-विमर्श करते हैं।
प्रश्न 7 – क्या कारण है कि बैंक कुछ कर्जदारों को कर्ज देने के लिए तैयार नहीं होते?
उत्तर- बैंकों का मुख्य कार्य जमाओं पर रुपया प्राप्त करना और उसके आधार पर ऋण देना है। ऋण देने से पूर्व बैंक कागजी कार्यवाही पूरी करते हैं। बैंक से ऋण लेने के लिए ऋणाधार और कुछ समर्थ व्यक्तियों की गारण्टी ‘आवश्यक होती है। ऋण देने से पूर्व बैंक यह भी सुनिश्चित करते हैं कि ऋण की निर्धारित किस्तें व ब्याज ठीक समय पर बैंक को मिलता रहे। बैंक ऐसे कर्जदारों को ऋण देने के लिए तैयार नहीं होते, जहाँ उन्हें मूलधन डूबने की आशंका हो ।
प्रश्न 8 – भारतीय रिजर्व बैंक अन्य बैंकों की गतिविधियों पर किस तरह नजर रखता है? यह जरूरी क्यों है?
उत्तर- भारतीय रिजर्व बैंक अन्य बैंकों की गतिविधियों पर नजर रखता है। इससे बैंकों की गतिविधियाँ नियमित एवं नियन्त्रित हो जाती हैं और वे मनमानी नहीं कर सकते। यह मुख्यतः निम्नलिखित बातों पर नजर रखता है—
- बैंक अपनी जमाओं का एक न्यूनतम निर्धारित हिस्सा अपने आप रख रहे हैं।
- बैंक निर्धारित नीति के अन्तर्गत ही ऋण दे रहे हैं।
- ऋणों पर ब्याज दर केन्द्रीय बैंक द्वारा निर्धारित ब्याज दर से अधिक नहीं है।
- बैंक केवल लाभ अर्जित करने वाले व्यवसायियों और व्यापारियों को ही ऋण उपलब्ध नहीं करा रहे, अपितु छोटे किसानों, छोटे उद्योगों, छोटे कर्जदारों को भी ऋण दे रहे हैं।
जमाराशि ऋणराशि, ऋण-भागी व ब्याज दर के सम्बन्ध में बैंक को भारतीय रिजर्व बैंक को समय-समय पर सूचना देनी होती है।
प्रश्न 9 – विकास में ऋण की भूमिका का विश्लेषण कीजिए ।
उत्तर — विकास का अर्थ है—अधिक आय, उच्च उपभोग स्तर एवं उच्च जीवन स्तर अर्थात् मनुष्य की अधिक-से-अधिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि की क्षमता । मनुष्य अपनी आय से अपनी उपभोग आवश्यकताओं को तो पूरा कर सकता है, परन्तु उत्पादक आवश्यकता को नहीं, क्योंकि उसकी आय सीमित है। इसी प्रकार किसी देश की घरेलू बचतें भी सीमित होती हैं। कोई भी देश उपलब्ध वित्तीय संसाधनों से अपने आर्थिक विकास को आगे नहीं बढ़ा सकता । व्यक्ति और राष्ट्र दोनों को ही ऋणों की आवश्यकता होती है। व्यक्ति केवल आन्तरिक स्रोतों से ऋण ले सकता है, जबकि राष्ट्र आन्तरिक व बाह्य दोनों स्रोतों से ऋण ले सकता है।
ऋण लेने से पूर्व यह निश्चित रूप से देख लेना चाहिए कि ऋण अदायगी का ढंग सरल, सुविधाजनक और उदार हो, ऋण बन्धन रहित (untied) हो और ऋण वापस करने की विधि सरल व ऋणी के अनुकूल हो ।
प्रश्न 10 – मानव को एक छोटा व्यवसाय करने के लिए ऋण की जरूरत है। मानव किस आधार पर यह निश्चित करेगा कि यह ऋण बैंक से लेना चाहिए या साहूकार से? चर्चा कीजिए ।
उत्तर — बैंक अथवा साहूकार से ऋण लेने के लिए वह निम्नलिखित बातों पर ध्यान देगा-
- ब्याज की दर – मानव यह देखेगा कि बैंक अथवा साहूकार में से किसकी ऋणों पर ब्याज दर कम है। जिसकी ब्याज दर कम होगी, मानव उससे ऋण लेगा।
- ऋण की शर्तें – मानव यह देखेगा कि ऋण की शर्तें सरल हैं। या कठोर, कागजी कार्यवाही अधिक तो नहीं है और ऋण की अदायगी की किस्तें आसान हैं।
प्रायः साहूकार की में बैंक की ऋणों पर ब्याज की दर कम है, तुलना ऋण की शर्तें सरल हैं, उदार हैं और ऋण अदायगी की किस्तें भी आसान हैं। दूसरे, बैंक की गतिविधियों पर भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा नियन्त्रण है; अतः वह ऋण के सम्बन्ध में मनमाने ढंग से निर्णय नहीं ले सकता । अतः मानव अपना व्यवसाय चलाने के लिए साहूकार की अपेक्षा बैंक से ऋण लेना अधिक पसन्द करेगा।
प्रश्न 11 – भारत में 80 प्रतिशत किसान छोटे किसान हैं, जिन्हें खेती करने के लिए ऋण की जरूरत होती है।
(क) बैंक छोटे किसानों को ऋण देने से क्यों हिचकिचा सकते हैं?
(ख) वे दूसरे स्रोत कौन हैं, जिनसे छोटे किसान कर्ज ले सकते हैं?
(ग) उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए कि किस तरह ऋण की शर्तें छोटे किसानों के प्रतिकूल हो सकती हैं।
(घ) सुझाव दीजिए कि किस तरह छोटे किसानों को सस्ता ऋण उपलब्ध कराया जा सकता है।
उत्तर- (क) बैंक छोटे किसानों को ऋण देने से इसलिए हिचकिचा सकते हैं क्योंकि उनकी धारणा है कि छोटे किसान मूलधन व ब्याज की अदायगी की किस्तें समय पर नहीं जमा करा पाएँगे। यह भी हो सकता है कि वे ऋण वापस ही न कर पाएँ।
(ख) छोटे किसान अनौपचारिक क्षेत्रकों से ऋण ले सकते हैं; जैसे – साहूकार, महाजन, गाँव के व्यापारी, मित्र व रिश्तेदार ।
(ग) छोटे किसानों के लिए ऋण की शर्तें निम्नलिखित दशाओं में प्रतिकूल हो सकती हैं—
(i) जब ब्याज दर ऊँची हो,
(ii) जब भूमि जोतों को गिरवी के रूप में रखना पड़े अथवा सम्पत्ति ऋणाधार हो,
(iii) जब ऋण की शर्त यह हो कि कृषि उत्पाद केवल कृषि व्यापारी को ही बेचा जाएगा,
(iv) जब ऋण की वापसी न होने पर ऋणी को बन्धक मजदूर के रूप में कार्य करना पड़े।
(घ) छोटे किसानों को निम्न प्रकार सस्ता ऋण उपलब्ध कराया जा सकता है—
(i) सरकार अथवा केन्द्रीय बैंक बैंकों को ऐसा आदेश दे सकता है।
(ii) सरकार अथवा केन्द्रीय बैंक छोटे किसानों के हितों के अनुकूल ऋण नीति तैयार कर सकता है।
(iii) सरकार ऋण के बदले कृषि जोतों को बन्धक के रूप में रखने पर प्रतिबन्ध लगा सकती है।
(iv) सहकारी साख समितियों व ग्रामीण बैंकों को स्थापित करके छोटे किसानों को सस्ता ऋण उपलब्ध कराया जा सकता है।
प्रश्न 12 – रिक्त स्थानों की पूर्ति करें-
(क) ………… परिवारों की ऋण की अधिकांश जरूरतें अनौपचारिक स्रोतों से पूरी होती हैं।
उत्तर— निर्धन |
(ख) ………… ऋण की लागत, ऋण का बोझ बढ़ाती है।
उत्तर- ऊँची ब्याज दर ।
(ग) ……….. केन्द्रीय सरकार की ओर से करेंसी नोट जारी करता है।
उत्तर- भारतीय रिजर्व बैंक ।
(घ) बैंक ……….. पर देने वाले ब्याज से ऋण पर अधिक ब्याज लेते हैं।
उत्तर— जमाराशियों ।
(ङ) ………… ऐसी सम्पत्ति है जिसका मालिक कर्जदार होता है जिसे वह ऋण लेने के लिए गारण्टी के रूप में इस्तेमाल करता है, जब तक ऋण चुकता नहीं हो जाता।
उत्तर – समर्थक ऋणाधार ।
प्रश्न 13 – सही उत्तर का चयन करें-
(क) स्वयं सहायता समूह में बचत और ऋण सम्बन्धित अधिकतर निर्णय लिए जाते हैं-
(i) बैंक द्वारा
(ii) सदस्यों द्वारा
(iii) गैर सरकारी संस्था द्वारा
उत्तर- (ii) सदस्यों द्वारा ।
(ख) ऋण के औपचारिक स्रोतों में शामिल नहीं है-
(i) बैंक
(ii) सहकारी समिति
(iii) नियोक्ता
उत्तर- (iii) नियोक्ता ।
अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
• विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – विनिमय का अर्थ एवं विशेषताएँ बताइए । विनिमय के लिए आवश्यक शर्तें क्या हैं?
उत्तर – विनिमय का अर्थ-साधारण शब्दों में दो पक्षों के बीच होने वाले वस्तुओं व सेवाओं के हस्तान्तरण ( अदल-बदल ) को ‘विनिमय’ कहते हैं। मार्शल के अनुसार, “दो पक्षों के मध्य होने वाले धन के ऐच्छिक, वैधानिक एवं पारस्परिक हस्तान्तरण को ही विनिमय कहते हैं।”
विनिमय की विशेषताएँ – उपर्युक्त परिभाषा के आधार पर विनिमय की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-
- विनिमय क्रिया में दो पक्ष होने चाहिए- एक वस्तु को देने वाला और दूसरा वस्तु को लेने वाला ।
- दोनों पक्षों के मध्य धन का हस्तान्तरण होना चाहिए। यह हस्तान्तरण परस्पर समझौते के आधार पर होना चाहिए।
- धन का हस्तान्तरण पूर्णत: ऐच्छिक होना चाहिए। इसमें किसी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए।
- धन का हस्तान्तरण वैधानिक (कानूनसम्मत) होना चाहिए।
उदाहरण – यदि वकुल अपने मित्र से एक रुपया देकर कॉपी लेता है तो यह क्रिया विनिमय कहलाएगी, क्योंकि इसमें धन का हस्तान्तरण हुआ है और यह हस्तान्तरण ऐच्छिक, वैधानिक तथा पारस्परिक है। किन्तु यदि वकुल धमकी देकर कॉपी छीन लेता है तो यह विनिमय नहीं होगा, क्योंकि यह हस्तान्तरण ऐच्छिक, वैधानिक एवं पारस्परिक नहीं है।
विनिमय के लिए आवश्यक शर्तें- विनिमय की क्रिया के लिए निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है-
- एक व्यक्ति के पास वस्तु की मात्रा उसकी आवश्यकता से अधिक होनी चाहिए।
- कम-से-कम दो पक्ष होने चाहिए।
- दोनो पक्षो के पास दो या दो से अधिक वस्तुएँ होनी चाहिए ।
- दोनों पक्षों को एक-दूसरे की वस्तुओं की आवश्यकता होनी चाहिए।
- विनिमय कार्य से दोनों पक्षों को लाभ होना चाहिए ।
प्रश्न 2 – वस्तु विनिमय से आप क्या समझते हैं? वस्तुविनिमय की मुख्य कठिनाइयाँ बताइए ।
उत्तर— वस्तु-विनिमय का अर्थ – एक वस्तु से दूसरी वस्तु के प्रत्यक्ष विनिमयं को ही ‘वस्तु विनिमय’ कहते हैं। प्रो० जेवन्स के शब्दों में, ‘अपेक्षाकृत कम आवश्यक वस्तु से अधिक आवश्यक वस्तुओं का आदान-प्रदान ही वस्तु-विनिमय है । ‘ ,
वस्तु-विनिमय की कठिनाइयाँ
वस्तु-विनिमय की प्रमुख कठिनाइयाँ निम्नलिखित हैं-
- दोहरे संयोग का अभाव – वस्तु-विनिमय प्रणाली में मनुष्य ऐसे व्यक्तियों को खोजता है, जो उसकी अतिरिक्त वस्तु लेकर उसे इच्छित वस्तु दे दे। उदाहरण के लिए-माना नकुल के पास एक किताब है। वह उसके बदले में दो पैन लेना चाहता है, तो उसे ऐसे व्यक्ति को ढूँढना होगा जो किताब लेकर दो पैन देना चाहता हो। यह एक कठिन कार्य है। इसमें उसका समय तथा शक्ति व्यर्थ नष्ट होंगे। यह भी हो सकता है कि उसे ऐसा व्यक्ति ही न मिले। एक विकसित अर्थव्यवस्था में, जिसमें एक दिन में लाखों व्यक्ति वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय करते हों, ऐसे संयोगों का मिलना लगभग असम्भव – सा ही है।
- मूल्य मापन का अभाव – वस्तु-विनिमय प्रणाली में विनिमय की दर निश्चित करना बहुत कठिन था । इसका कारण वस्तुओं की संख्या का निरन्तर बढ़ते जाना था। उदाहरण के लिए-गाय के बदले में कितना कपड़ा, कितना गेहूँ, कितनी भूमि देनी चाहिए, यह निश्चित करना या याद रखना अत्यन्त कठिन कार्य था।
- वस्तु विभाजन में कंठिनाई – बहुत-सी वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनका विभाजन नहीं किया जा सकता। विभाजन से उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है। वस्तु विनिमय में यह एक मुख्य असुविधा थी । जैसे – विवेक गाय के बदले में कपड़ा, अनाज तथा जूते प्राप्त करना चाहता है। विवेक को ऐसा व्यक्ति मिलना कठिन है, जो गाय लेकर तीनों चीजें देने को तैयार हो। लेकिन वह अलग-अलग व्यक्तियों से भी अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि गाय विभाजित नहीं की जा सकती।
- मूल्य संचय का अभाव – अधिकांश वस्तुएँ शीघ्र नष्ट हो जाती हैं। वस्तु- -विनिमय में ऐसी वस्तुओं का संचय करके अधिक दिन तक नहीं रखा जा सकता। इसके मुख्य कारण हैं— (i) कुछ वस्तुएँ नाशवान् होती हैं, (ii) कुछ वस्तुएँ अधिक स्थान घेरती हैं, (iii) वस्तुओं के मूल्य में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है तथा (iv) वस्तुओं में तरलता का अभाव पाया जाता है।
- स्थान परिवर्तन की कठिनाई – प्राचीनकाल में परिवहन के साधनों के अभाव के कारण वस्तुओं के स्थानान्तरण में बहुत अधिक कठिनाई होती थी। यदि व्यक्ति एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थान पर जाना चाहता था, तो उसके लिए अपनी सम्पत्ति को साथ ले जाना सम्भव नहीं था ।
- भावी भुगतान की असुविधा – आज अनेक वस्तुओं का क्रय-विक्रय हम भविष्य में भुगतान करने के आधार पर करते हैं, परन्तु वस्तु विनिमय प्रणाली में यह सम्भव नहीं था । उसमें तो एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु उसी समय देनी पड़ती थी । अतः विनिमय होने की दशा में उधार लेन-देने का प्रचलन नहीं था ।
प्रश्न 3 – मुद्रा के प्रादुर्भाव से वस्तु-विनिमय की कठिनाइयों को किस प्रकार दूर किया जा सका है?
उत्तर – मुद्रा के प्रादुर्भाव से वस्तु विनिमय की कठिनाइयों का निवारण हो गया है; यथा-
- मौद्रिक प्रणाली में आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की आवश्यकता नहीं होती – क्योंकि अब मुद्रा की सहायता से अपने अतिरेक को बाजार में जाकर बेचा जा सकता हैं तथा अपनी आवश्यकता की वस्तु खरीदी जा सकती है।
- मुद्रा मूल्य का मापक है— अब प्रत्येक वस्तु का मूल्य मुद्रा द्वारा मापा जाता है; अतः मुद्रा ने वस्तु-विनिमय के लिए मूल्य माप के अभाव की कठिनाई को दूर कर दिया है।
- वस्तु के विभाजन के अभाव की कठिनाई दूर हो गई है— क्योंकि अब प्रत्येक वस्तु का क्रय-विक्रय मुद्रा द्वारा किया जाता है। मुद्रा 1, 2, 5, 10, 20, 50, 100, 200, 500 व 2000 रुपये के नोटों में विभाजित है ।
- क्रय शक्ति का संचय सम्भव हो गया है— अब प्रत्येक वस्तु का क्रय-विक्रय मुद्रा द्वारा होता है; अतः मुद्रा के रूप में क्रय शक्ति का संचयं किया जा सकता है।
- मुद्रा द्वारा भविष्य में भुगतान की कठिनाई दूर हो गई है – अब वस्तुओं को उधार खरीदा और बेचा जा सकता है, बाद में उसका भुगतान किया जा सकता है। बैंकिंग संस्थाओं के विकास ने भावी भुगतान को और भी अधिक सुविधाजनक बना दिया है। अब भुगतान के लिए साख-पत्रों; जैसे― चैक, बैंक ड्राफ्ट आदि का प्रयोग किया जाने लगा है।
- मुद्रा के प्रादुर्भाव से मूल्य हस्तान्तरण की समस्या का समाधान हो गया है— किसी व्यक्ति का स्थानान्तरण हो जाने की दशा में. वह अपनी सारी सम्पत्ति को बेचकर तथा उसके बदले मुद्रा लेकर दूसरे स्थान पर जा सकता है और वहाँ पर मुद्रा द्वारा पुनः अपनी आवश्यकता की सब वस्तुएँ खरीद सकता है।
इस प्रकार मुद्रा के प्रादुर्भाव से वस्तु विनिमय की कठिनाइयों का समाधान हो गया है।
प्रश्न 4 – बैंक से आप क्या समझते हैं? आधुनिक युग में बैंक क्या कार्य सम्पन्न करते हैं?
उत्तर – बैंक हमारे आधुनिक आर्थिक जीवन की एक महत्त्वपूर्ण संस्था है। सामान्यतः बैंक को रुपया जमा करने व ऋण देने वाली संस्था के नाम से जाना जाता है परन्तु आधुनिक समय में बैंक के कार्यों का अत्यधिक विस्तार हो गया है। इसलिए बैंक की परिभाषाएँ भी विस्तृत हो गई हैं। बैंक को निम्न प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-
बैंक वह व्यक्ति अथवा संस्था है जो मुद्रा और साख में व्यवसाय करती है, जहाँ जमा धन का संरक्षण और निर्गमन होता है तथा ऋण एवं कटौती की सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं और एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने की व्यवस्था की जाती है।
बैंक के कार्य
एक आधुनिक बैंक निम्नलिखित कार्य सम्पन्न करता है-
- जमा पर रुपया प्राप्त करना- व्यापारिक बैंक का मुख्य कार्य जनता की बचत को एकत्रित करना तथा उसे उन लोगों के लिए उपलब्ध कराना है, जो उसका उचित उपयोग करना चाहते हैं। बैंक में रकम जमा करने के लिए प्राय: पाँच प्रकार के खाते खोले जाते हैं— (i) चालू खाता, (ii) सावधि जमा खाता, (iii) बचत खाता, (iv) गृह बचत खाता (v) आवर्ती जमा खाता ।
- ऋण देना – व्यापारिक बैंक का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य अपने ग्राहकों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ऋण देना है। प्राय: उत्पादक कार्यों के लिए ही ऋण देते हैं। बैंक सामान्यतः पाँच प्रकार के ऋण प्रदान करते हैं— (i) ऋण तथा अग्रिम धन, (ii) नकद साख (iii) अधिविकर्ष, (iv) बिलों का भुनाना, (v) धनराशि का सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश ।
- विनिमय का सस्ता माध्यम – बैंक समाज को सस्ते तथा सुविधाजनक विनिमय का माध्यम प्रदान करते हैं। इसके प्रमुख उदाहरण चैक तथा नोट हैं।
- मुद्रा का स्थानान्तरण – अपनी विभिन्न शाखाओं के माध्यम बैंक देश के एक भाग से दूसरे भाग को भेजने की सुविधाएँ देते हैं। मुद्रा बैंक यह कार्य ड्राफ्ट या एकाउण्ट ट्रांसफर द्वारा करते हैं।
- अभिकर्त्ता सम्बन्धी कार्य-
- ग्राहकों द्वारा भेजे गए चैक, विनिमय विपत्र आदि साख-पत्रों का भुगतान करना।
- अपने ग्राहकों द्वारा लिखे गए चैकों का भुगतान करना तथा ग्राहकों के बिल स्वीकार करना ।
- ग्राहकों के बीमे की प्रीमियम, कर, साख, ब्याज, किराया, ऋण की किस्त आदि का भुगतान करना ।
- अपने ग्राहकों की ओर से लाभांश, ब्याज, किराया, ऋण किस्त आदि का भुगतान करना ।
- अपने ग्राहकों के लिए सरकारी प्रतिभूतियाँ, कम्पनियों के शेयर्स तथा ऋण आदि के क्रय-विक्रय का कार्य करना ।
- अपने ग्राहकों की सम्पत्ति के प्रबन्धक, ट्रस्टी अथवा व्यवस्थापक का कार्य करना।
- अपने ग्राहकों के लिए पासपोर्ट तथा यात्रा सम्बन्धी विदेशी विनिमय एवं अन्य सुविधाओं के लिए पत्र-व्यवहार करना ।
- विदेशी विनिमय का क्रय-विक्रय – अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के विकास के लिए कुछ व्यापारिक बैंक विदेशी विनिमय का क्रय-विक्रय करते हैं। यह कार्य उन्हें केन्द्रीय बैंक द्वारा सौंपा जाता है।
- आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार का अर्थ-प्रबन्धन — बैंक विनिमय विपत्रों की कटौती करके आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार का अर्थ-प्रबन्धन करते हैं। कभी-कभी बैंक हुण्डियों तथा बिलों की जमानत पर अल्पकालीन ऋण भी देते हैं।
- आँकड़ों को एकत्रित करना – बड़े-बड़े बैंक व्यापार तथा उद्योगों के विषय में आवश्यक जानकारी प्राप्त करते हैं, आँकड़े एकत्रित करते हैं तथा उन्हें प्रकाशित करते हैं।
- साख निर्माण कार्य—अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से आधुनिक बैंक अपनी पूँजी तथा जमाराशि की कुल मात्रा से अधिक ऋण देते हैं। इस प्रकार के बैंक साख का निर्माण करते हैं।
प्रश्न 5—गरीबों के लिए स्वयं सहायता समूहों के संगठनों के पीछे मूल विचार क्या हैं? अपने शब्दों में व्याख्या कीजिए ।
अथवा ‘स्वयं सहायता समूह’ से आप क्या समझते हैं? भारत में कार्यरत ऐसे समूह गरीबों की किस प्रकार सहायता करते हैं?
उत्तर- ‘स्वयं सहायता समूह’ के अन्तर्गत लोगों ने गरीबों को उधार देने के कुछ नये तरीके अपनाए हैं। इनमें छोटे-छोटे समूह बनाए जाते हैं जिन्हें स्वयं सहायता समूह कहा जाता है। गरीबों के लिए स्वयं सहायता समूहों के संगठनों के पीछे मूल विचार यह है कि गरीब लोग बचत करें, बचत को एकत्रित करें और आवश्यकता पड़ने पर उसमें से ऋण लें। इसके अन्तर्गत 15 से 20 लोग एक समूह बना लेते हैं। वे नियमित रूप से मिलते हैं और अपनी बचतों को संगृहीत करते हैं। यह बचत राशि धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। यह समूह अपने सदस्यों को ऋण देकर उनकी जरूरतों को पूरा करता है। इस ऋण की सहायता से लोग अपना छोटा-मोटा रोजगार प्रारम्भ कर सकते हैं। इस सम्बन्ध में निर्णय सभी सदस्यों द्वारा मिलकर लिए जाते हैं। ये ऋण ऋणाधार के बिना मिलते हैं। इस प्रकार लोगों को स्वावलम्बी बनने में सहायता मिलती है। इसके अतिरिक्त ये सामान्य समस्याओं पर भी विचार-विमर्श करते हैं।
• लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – दोहरे संयोग से क्या आशय है? क्या मुद्रा के प्रयोग में आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की आवश्यकता होती है?
उत्तर : दोहरा संयोग – दोनों पक्ष एक-दूसरे से चीजें खरीदने और बेचने पर सहमति रखते हैं। इसे आवश्यकताओं का दोहरा संयोग कहा जाता है।
आवश्यकताओं का दोहरा संयोग-वस्तु-विनिमय प्रणाली में मनुष्य ऐसे व्यक्ति को खोजता है, जो उसकी अतिरिक्त वस्तु लेकर उसे | इच्छित वस्तु दे दे। उदाहरण के लिए – माना नकुल के पास एक किताब है। वह उसके बदले में दो पैन लेना चाहता है तो उसे ऐसे व्यक्ति को ढूँढना होगा, जो किताब लेकर दो पैन देना चाहता हो। यह एक कठिन कार्य है। इसमें उसका समय तथा शक्ति व्यर्थ नष्ट होंगे। यह भी हो सकता है कि उसे ऐसा व्यक्ति ही न मिले। एक विकसित अर्थव्यवस्था में, जिसमें एक दिन में की लाखों व्यक्ति वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय करते हों, ऐसे संयोगों का मिलना लगभग असम्भव-सा है।
मौद्रिक प्रणाली में आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की आवश्यकता नहीं होती — क्योंकि अब मुद्रा की सहायता से अपने अतिरेक को बाजार में बेचा जा सकता है तथा अपनी आवश्यकता की वस्तु खरीदी जा सकती है।
प्रश्न 2 – मुद्रा के प्रयोग से वस्तुओं के विनिमय में सहूलियत कैसे आती है?
उत्तर – मुद्रा के प्रयोग से वस्तुओं व सेवाओं के क्रय-विक्रय में आसानी हो जाती है। कोई भी व्यक्ति अपनी अतिरिक्त वस्तु को बेचकर मुद्रा प्राप्त कर लेता है और उस मुद्रा द्वारा अपनी आवश्यकता की वस्तु खरीद लेता है।
उदाहरण – माना एक चावल विक्रेता चावल के बदले जूता खरीदना चाहता है। वस्तु-विनिमय प्रणाली में उसके लिए ऐसे व्यक्ति को ढूँढना मुश्किल होगा जो उससे चावल लेकर बदले में जूता दे दे। किन्तु मुद्रा के प्रयोग ने इस कठिनाई को हल कर दिया है। अब चावल विक्रेता चावल बेचकर मुद्रा प्राप्त करेगा और उस मुद्रा से जूता खरीद लेगा।
प्रश्न 3 – क्या आप कुछ ऐसे उदाहरण सोच सकते हैं, जहाँ वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय या मजदूरी की अ वस्तु-विनिमय के जरिए हो रही है ?
उत्तर- ऐसे कुछ उदाहरण अग्रलिखित हैं जहाँ वस्तुओं तथा सेवाओं का विनिमय अथवा मजदूरी का भुगतान वस्तु-विनिमय के द्वारा हो रहा है—
- गाँव में एक जुलाहा दूसरे व्यक्ति को खाद्यान्न के बदले कपड़ा देता है।
- एक दूधिया किसी ऐसे किसान को, जिसके पास कोई पशु नहीं है, भूसे के बदले दूध देता है।
- एक फेरीवाला पुराने कपड़ों के बदले स्टील अथवा प्लास्टिक के बर्तन देता है।
- एक फेरीवाला टूटी प्लास्टिक अथवा लोहे के बदले नमक अथवा अन्य कोई वस्तु देता है।
- एक ग्रामीण अध्यापक अनाज के बदले किसी बच्चे को ट्यूशन पढ़ाता है।
प्रश्न 4 – लोग बैंकों में निक्षेप क्यों रखते हैं?
उत्तर— लोग अपनी अतिरिक्त मुद्रा को बैंकों में निक्षेप के रूप में रखते हैं। बैंक इन जमाओं पर ब्याज देते हैं। इससे प्रथम, उनका धन सुरक्षित रहता है तथा दूसरे, उन्हें जमा धन पर ब्याज मिलता है। उन्हें आवश्यकता के समय इसमें से धन निकालने की सुविधा भी उपलब्ध रहती है। इन जमाओं में से धन का आहरण चैक द्वारा किया जा सकता है। चैक द्वारा दूसरों को धन का भुगतान भी किया जा सकता है। इसमें नकद मुद्रा के उपयोग का जोखिम भी नहीं रहता है।
प्रश्न 5 – ऋण के औपचारिक एवं अनौपचारिक स्रोतों में क्या अन्तर है?
उत्तर— ऋण के औपचारिक एवं अनौपचारिक स्रोतों में निम्नलिखित अन्तर हैं-
- ऋण के औपचारिक स्रोतों में बैंक व सहकारी समितियाँ आती हैं, जबकि अनौपचारिक स्रोतों में साहूकार, व्यापारी, नियोक्ता, रिश्तेदार व मित्र आते हैं।
- ऋण के औपचारिक स्रोतों की गतिविधियों पर केन्द्रीय बैंक (भारतीय रिजर्व बैंक) निगरानी रखता है, जबकि अनौपचारिक स्रोतों की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखने के लिए कोई संस्था नहीं है।
- अनौपचारिक स्रोतों से लिया गया ऋण औपचारिक स्रोतों की तुलना में अधिक महँगा होता है क्योंकि उनकी ब्याज दरें अपेक्षाकृत अधिक ऊँची होती हैं।
प्रश्न 6 – सभी लोगों के लिए यथोचित दरों पर ऋण क्यों उपलब्ध होना चाहिए?
उत्तर— जहाँ तक सम्भव हो, सभी लोगों को उचित ब्याज की दर पर ऋण उपलब्ध होना चाहिए। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-
- भारत में निर्धनता एवं बेरोजगारी व्यापक रूप से विद्यमान है। अधिकांश लोगों की आय का स्तर निम्न है। वे अपनी दैनिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं कर पाते हैं।
- सीमान्त किसानों को कृषि कार्य करने, पशु व अन्य आदाओं को खरीदने, सिंचाई के उपकरण किराए पर लेने के लिए ऋणों की आवश्यकता होती है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में कारीगरों व शिल्पकारों को अपना व्यवसाय चलाने के लिए ऋण की आवश्यकता होती है।
- बड़े व्यापारियों को नए-नए व्यवसाय करने व नए-नए उद्योगों की स्थापना के लिए ऋण की आवश्यकता होती है।
इन सभी के लिए उचित ब्याज की दरों पर ऋण उपलब्ध कराना आवश्यक है अन्यथा ऋण की लागतें बढ़ जाएँगी और उत्पादन हतोत्साहित होगा।
प्रश्न 7 – क्या भारतीय रिजर्व बैंक जैसा कोई निरीक्षक होना चाहिए जो अनौपचारिक ऋणदाताओं की गतिविधियों पर नजर रखे ? उसका काम मुश्किल क्यों होगा?
उत्तर- अनौपचारिक ऋणदाताओं की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक, जोकि औपचारिक ऋणदाताओं की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखता है, जैसा कोई निरीक्षक अवश्य होना चाहिए। यह नियन्त्रण अनौपचारिक क्षेत्रक को अधिक उपयोगी बनाएगा। इससे उनकी मनमानी पर अंकुश लगेगा। उनकी ब्याज दरें कम होंगी और ऋण लेने वालों को उनकी कुरीतियों से मुक्ति मिलेगी।
यह कार्य कठिन है क्योंकि यह क्षेत्रक व्यापक रूप से फैला हुआ है। अधिकांश ऋणदाता अपंजीकृत हैं और ग्रामीणों पर उनका प्रभुत्व है। अधिक उचित यही होगा कि ग्रामीण क्षेत्रों के बैंकों और सहकारी समितियों का विस्तार करके अनौपचारिक क्षेत्रक पर उनकी निर्भरता को घटाया जाए।
प्रश्न 8 – आपकी समझ में गरीब परिवारों की तुलना में अमीर परिवारों के औपचारिक ऋणों का हिस्सा अधिक क्यों होता है ?
उत्तर – गरीब परिवारों की तुलना में अमीर परिवारों के औपचारिक ऋणों का हिस्सा अधिक होता है। इसके निम्नलिखित कारण हैं-
- बैंक व अन्य वित्तीय निगम ऋण देने से पूर्व समर्थक ऋणाधार (आभूषण, सम्पत्ति आदि) की माँग करते हैं ताकि उनका ऋण व ब्याज पूर्णतः सुरक्षित रहे। ऐसा अमीर परिवार ही कर सकते हैं क्योंकि गरीब परिवारों के पास बन्धक रखने के लिए कुछ नहीं होता ।
- ऋण का आधार साख होती है। गरीब परिवारों की तुलना में अमीर परिवारों की साख अच्छी होती है।
- निर्धन परिवारों को ऋण देना अपेक्षाकृत अधिक जोखिमपूर्ण होता है।
• अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – वस्तु-विनिमय का अर्थ बताइए ।
उत्तर – एक वस्तु से दूसरी वस्तु के प्रत्यक्ष विनिमय को ही ‘वस्तु विनिमय’ कहते हैं। उदाहरण के लिए — गेहूँ से मछली की अदल-बदल वस्तु-विनिमय कहलाएगी।
प्रश्न 2 – क्रय-विक्रय से क्या आशय हैं?
उत्तर— क्रय-विक्रय प्रणाली में क्रय-विक्रय सम्बन्धी क्रियाएँ मुद्रा के माध्यम से होती हैं। व्यक्ति अपनी अतिरिक्त वस्तुओं को बेचकर मुद्रा प्राप्त कर लेता है और मुद्रा की सहायता से आवश्यकता के समय दूसरी वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है।
प्रश्न 3 – वस्तु-विनिमय की दो कठिनाइयाँ बताइए ।
उत्तर – (1) दोहरे संयोग का अभाव, (2) सर्वमान्य मूल्य मापक का अभाव।
प्रश्न 4 – मुद्रा क्या है ?
उत्तर – मुद्रा एक ऐसी वस्तु है जो व्यापक क्षेत्र में विनिमय के माध्यम, मूल्य के मापक, स्थगित भुगतानों के मान एवं मूल्य के संचय के साधन के रूप में सामान्य रूप से स्वीकार की जाती है एवं जिसे राजकीय संरक्षण अथवा मान्यता प्राप्त होती है।
प्रश्न 5 – मुद्रा के दो प्राथमिक कार्य बताइए ।
उत्तर – (1) विनिमय का माध्यम तथा (2) मूल्य का मापक।
प्रश्न 6 – मुद्रा के दो लाभ बताइए ।
उत्तर – (1) मुद्रा द्वारा विनिमय कार्य सरल हो गया है।
(2) मुद्रा की सहायता से उत्पादन के विभिन्न साधनों को आदर्श अनुपात में जुटाना सम्भव हो गया है।
प्रश्न 7 – माँग जमा को मुद्रा क्यों समझा जाता है?
उत्तर- बैंक खातों में जमा धन को माँग करने पर निकाला जा सकता है, इसलिए इस माँग जमा को मुद्रा समझा जाता है।
प्रश्न 8 – बैंक के दो कार्य मुख्य बताइए।
उत्तर- (1) जमा खातों में धन स्वीकार करना। (2) ऋण देना।
प्रश्न 9 – बैंक जमा का एक छोटा हिस्सा अपने पास नकद रूप में क्यों रखते हैं?
उत्तर – एक विशेष दिन में केवल कुछ जमाकर्ता ही बैंक में नकदी निकालने के लिए आते हैं। इन्हें नकदी देने के लिए बैंक जमा का एक छोटा हिस्सा अपने पास रखते हैं।
प्रश्न 10 – बैंक शेष जमाराशि का कैसे उपयोग करते हैं?
उत्तर – बैंक शेष जमाराशि का लोगों की ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपयोग करते हैं।
प्रश्न 11 – बैंकों की आय का प्रमुख स्रोत क्या है ?
उत्तर – बैंक जमाओं पर कम ब्याज देते हैं और ऋणों पर अधिक ब्याज लेते हैं। ऋणों और जमाओं पर ब्याज का अन्तर ही बैंकों की आय का प्रमुख स्रोत है।
प्रश्न 12 – ऋण (उधार) से क्या आशय है?
उत्तर— ऋण से हमारा तात्पर्य एक ऐसी स्थिति से है जहाँ साहूकार ऋणी को धन, वस्तुएँ या सेवाएँ मुहैया कराता है और बदले में भविष्य में ऋणी से भुगतान करने का वादा लेता है।
प्रश्न 13 – ऋण किस प्रकार एक महत्त्वपूर्ण एवं सकारात्मक भूमिका अदा करता है ?
उत्तर – ऋण उत्पादन के कार्यशील खर्चों को पूरा करने, उत्पादन कार्य को समय पर पूरा करने तथा आय बढ़ाने में मदद करता है।
प्रश्न 14 – ग्रामीण क्षेत्रों में साख की माँग किसलिए होती है?
उत्तर – ग्रामीण क्षेत्रों में साख की मुख्य माँग फसल उगाने के लिए होती है। फसल उगाने में बीज, खाद कीटनाशक दवाएँ, पानी, बिजली उपकरणों की मरम्मत आदि के लिए साख की माँग की जाती है।
प्रश्न 15 – किस परिस्थिति में ऋण के कारण किसान की स्थिति बदतर हो जाती है?
उत्तर – फसल बरबाद हो जाने पर जब किसान के लिए ऋण की अदायगी मुश्किल हो जाती है तो उसे इसके लिए अपनी जमीन जायदाद का कुछ हिस्सा बेचना पड़ता है। फलस्वरूप उसकी स्थिति बदतर हो जाती है।
प्रश्न 16 – समर्थक ऋणाधार से क्या आशय है?
उत्तर – समर्थक ऋणाधार ऐसी सम्पत्ति है जिसका मालिक कर्जदार हैं (जैसे- भूमि, इमारत, गाड़ी, पशु अथवा बैंकों में पूँजी) और उसका इस्तेमाल वह ऋणदाता को गारण्टी देने के रूप में करता है जब तक कि ऋण का भुगतान नहीं हो जाता ।
प्रश्न 17 – ऋण की शर्तों’ से क्या आशय है?
उत्तर — ब्याज दर, समर्थक ऋणाधार, आवश्यक कागजात और भुगतान के तरीकों को सम्मिलित रूप से ऋण की शर्तें’ कहा जाता है ।
प्रश्न 18 – उधारदाता उधार देते समय समर्थक ऋणाधार की माँग क्यों करता है?
उत्तर— उधार वापस न मिलने पर ऋणदाता समर्थक ऋणाधार को बेचकर दिया गया ऋण वापस ले लेता है। इससे उसका मूलधन व ब्याज सुरक्षित रहता है।
प्रश्न 19 – हमारे देश की एक बहुत बड़ी आबादी निर्धन है। क्या यह उनके कर्ज लेने की क्षमता को प्रभावित करती है?
उत्तर – निर्धन लोगों की आय कम होती है; अत: उन्हें दिए गए ऋण सुरक्षित नहीं होते। इसलिए ऋणदाता उन्हें कर्ज देने में संकोच करते हैं।
प्रश्न 20 – कृषक सहकारी समिति का क्या कार्य है?
उत्तर – कृषक सहकारी समिति कृषि उपकरण खरीदने, खेती तथा कृषि व्यापार करने, मछली पालन करने, घर बनाने और अन्य विभिन्न प्रकार के खर्चों के लिए ऋण मुहैया कराती है।
• बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1 – दो पक्षों के बीच होने वाली वस्तुओं और सेवाओं की अदल-बदल की प्रक्रिया को कहते हैं—
(अ) वस्तु-विनिमय
(ब) क्रय-विक्रय
(स) वितरण
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर – (अ) वस्तु-विनिमय ।
प्रश्न 2 – गेहूँ से चावल की अदल-बदल एक उदाहरण है-
(अ) वस्तु-विनिमय का
(ब) क्रय-विक्रय का
(स) (अ) व (ब) दोनों का
(द) उपर्युक्त में से कोई नहीं ।
उत्तर- (अ) वस्तु-विनिमय का ।
प्रश्न 3 – वस्तु-विनिमय की कठिनाइयाँ हैं-
(अ) दोहरे संयोग का अभाव
(ब) मूल्य माप का अभाव
(स) मूल्य संचय का अभाव
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर- (द) उपर्युक्त सभी।
प्रश्न 4 – विनिमय के लिए आवश्यक है—
(अ) दो पक्ष
(ब) तीन पक्ष
(स) चार पक्ष
(द) पाँच पक्ष
उत्तर- (अ) दो पक्षा
प्रश्न 5- किसी भी वस्तु को मुद्रा के रूप में स्वीकार किए जाने के लिए उसमें सबसे पहले आवश्यक विशेषता होनी चाहिए-
(अ) सर्वस्वीकृति
(ब) विधिग्राह्यता
(स) परिवर्तनीयता
(द) मूल्य में स्थिरता।
उत्तर- (अ) सर्वस्वीकृति
प्रश्न 6 – कौन-सा कथन सही है-
(अ) मुद्रा का कार्य केवल आय का वितरण करना है।
(ब) मुद्रा द्वारा वस्तु-विनिमय प्रणाली की कठिनाइयों को दूर करने में सहायता नहीं मिलती है
(स) मुद्रा समाज के लिए अभिशाप है।
(द) मुद्रा मुख्य रूप से विनिमय माध्यम एवं मूल्य-मापक का कार्य करती है।
उत्तर- (द) मुद्रा मुख्य रूप से विनिमय माध्यम एवं मूल्य-मापक का कार्य करती है।
प्रश्न 7 – निम्नलिखित में से कौन-सा कथन असत्य है—
(अ) मुद्रा विनिमय का माध्यम है।
(ब) मुद्रा मूल्य का मापक है।
(स) मुद्रा रोजगार के सृजन का आधार है
(द) मुद्रा विलम्बित भुगतानों का आधार है।
उत्तर – (द) मुद्रा विलम्बित भुगतानों का आधार है।
प्रश्न 8 – व्यापारिक बैंक के कार्य हैं—
(अ) जमा पर रुपया प्राप्त करना
(ब) ऋण देना
(स) (अ) व (ब) दोनों
(द) दोनों में से कोई नहीं ।
उत्तर- (स) (अ) व (ब) दोनों।
प्रश्न 9 – निम्नलिखित में से कौन-सा व्यापारिक बैंक का प्राथमिक कार्य है-
(अ) आँकड़ों का संकलन
(ब) साख का निर्माण
(स) ग्राहकों को सुविधाएँ देना
(द) जमा पर रुपया प्राप्त करना।
उत्तर- (द) जमा पर रुपया प्राप्त करना।