UK 10th Social Science

UK Board 10th Class Social Science – (इतिहास) – Chapter 1 यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय

UK Board 10th Class Social Science – (इतिहास) – Chapter 1 यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय

UK Board Solutions for Class 10th Social Science – सामाजिक विज्ञान – (इतिहास) – Chapter 1 यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय

पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1 – निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखो-
(क) ज्युसेपे मेत्सिनी
(ख) काउंट कैमिलो दे कावूर
(ग) यूनानी स्वतन्त्रता युद्ध
(घ) फ्रैंकफर्ट संसद
(ङ) राष्ट्रवादी संघर्षों में महिलाओं की भूमिका।
उत्तर- (क) ज्यूसेपे मेत्सिनी
मेत्सिनी का जीवन चरित्र – मेत्सिनी इटली की एकता का पैगम्बर था। उसका जन्म 1807 ई० में जेनेवा में हुआ था। उसका पिता एक प्रसिद्ध डॉक्टर और उच्च कोटि का विद्वान् था। वह फ्रांस की राज्य – क्रान्ति की विशद जानकारी रखता था। वह अपने पुत्र को फ्रांस के क्रान्तिकारियों की गाथाएँ बड़ी रुचि के साथ सुनाया करता था। इन गाथाओं से मेत्सिनी बचपन . से ही देशभक्ति और स्वतन्त्रता की भावनाओं से परिपूर्ण हो गया था। उसने अपने पिता से बचपन में ही फ्रांस की राज्य क्रान्ति की घटनाओं, फ्रांस में गणतन्त्र की स्थापना तथा नेपोलियन बोनापार्ट की विजयों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उसे अपने देश के अतीत गौरव का भी ज्ञान हो चुका था। वह अपने खण्डित देश की और जनता की शोचनीय दशा को देखकर दुःखी रहता था। वह इटली की पराधीनता को स्वतन्त्रता में बदलने का इच्छुक था।
शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त मेत्सिनी ने एक साहित्यकार बनने का निश्चय किया, किन्तु बाद में देशभक्ति की भावना से प्रेरित होकर वह पीडमाण्ट की ‘कार्बोनरी संस्था’ का एक सक्रिय सदस्य बन गया। कार्बोनरी के सदस्य के रूप में मेत्सिनी ने इटली के एकीकरण के लिए प्रयत्न करना प्रारम्भ कर दिया। लेकिन 1820-21 ई० के विद्रोहों की असफलता को देखकर मेत्सिनी इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि संस्थाओं द्वारा इटली का एकीकरण होना असम्भव है। अतः उसने इटली में राष्ट्रीय और उदारवादी विचारों का प्रचार करना आरम्भ कर दिया ।।
1830 ई० की क्रान्ति में मेत्सिनी ने महत्त्वपूर्ण रूप में भाग लिया। फलत: उसे पीडमाण्ट के अन्य क्रान्तिकारियों के साथ सेवाना के दुर्ग में कैद कर दिया गया। 6 महीने तक मेत्सिनी जेल में पड़ा रहा। जेल में रहकर उसने इटली के एकीकरण की अनेक योजनाएँ बनाईं और यह निष्कर्ष निकाला कि जब तक इटली के नवयुवकों में देशभक्ति, त्याग, बलिदान, सहनशीलता तथा सच्चरित्रता उत्पन्न नहीं की जाएगी, तब तक इटली की स्वतन्त्रता असम्भव है।
‘यंग इटली’ संस्था की स्थापना – मेत्सिनी को 6 महीने की कैद के बाद देश से निर्वासित कर दिया गया। 1832 ई० में उसने फ्रांस के मार्सेलीज (Marseilles) नगर में ‘यंग इटली’ (Young Italy) नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था का उद्देश्य गणतन्त्रीय तथा राष्ट्रीय आदर्शों का प्रचार करना था।
इस संस्था में मेत्सिनी ने इटली के वीर, साहसी, चरित्रवान सैनिक कार्यों में दक्ष नवयुवकों को भर्ती किया। इस संस्था में 40 वर्ष की आयु वाले व्यक्ति सदस्य बन सकते थे और सदस्यता ग्रहण करते समय उन्हें यह शपथ लेनी पड़ती थी— “मैं इटली को स्वतन्त्र करवाने और | इसमें गणतन्त्र की स्थापना करने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दूँगा । “
इस संस्था ने इटली की जनता में आत्म गौरव, देशप्रेम, नैतिक उत्साह तथा कर्त्तव्यपरायणता आदि उच्च कोटि की भावनाओं का प्रसार किया। इस संस्था को ‘ईश्वर और जनता’ (God and People) की संज्ञा दी गई। इस संस्था के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे –
  1. इटली के एकीकरण के लिए नवयुवकों में जागृति उत्पन्न करना ।
  2. गणतन्त्र की स्थापना के लिए प्रयत्न करना।
मेत्सिनी के प्रयत्नों के फलस्वरूप ‘यंग इटली’ के सदस्यों की संख्या 2 वर्षों में ही हजारों तक पहुँच गई। मेत्सिनी ने अपने प्रचार से इटली के नवयुवकों के हृदय में इस भावना को उत्पन्न कर दिया कि क्रान्तिकारी सिद्धान्तों के बिना इटली को पराधीनता से मुक्त नहीं कराया जा सकता। मेत्सिनी ने इटली के देशभक्तों के मस्तिष्क में यह विचार उत्पन्न कर दिया कि एक ऐसा गणतन्त्र स्थापित किया जाए जिसकी सीमाएँ सिसली से लेकर आल्पस तक विस्तृत हों।
मेत्सिनी ने अपने क्रान्तिकारी सिद्धान्तों का इतनी तेजी के साथ प्रचार किया कि वह इटली का सर्वप्रमुख नेता और सच्चा देशभक्त माना जाने लगा। उसके आदर्शों से प्रेरणा लेकर यूरोप के विभिन्न देशों ने अपने यहाँ ‘यंग इंग्लैण्ड’ तथा ‘यंग आयरलैण्ड’ आदि संस्थाएँ स्थापित की और अपनी स्वाधीनता के लिए प्रयत्नशील हो गए।
1848 ई० की फ्रांसीसी क्रान्ति की सफलता और घोर प्रतिक्रियावादी मैटरनिख के पतन की सूचना पाकर इटली के क्रान्तिकारी बड़े उत्साहित हुए । उन्होंने लम्बार्डी की राजधानी मिलान में विद्रोह कर दिया और आस्ट्रिया की सेना को वहाँ से भगा दिया। मेत्सिनी ने क्रान्तिकारियों का साथ दिया। इसी समय पोप के राज्य में भी विद्रोह हो गया, जिससे पोप को अपने प्राणों की रक्षा के लिए भाग जाना पड़ा। देशभक्तों ने रोम में गणतन्त्र की स्थापना की । मेत्सिनी रोम के गणतन्त्र का राष्ट्रपति बना और गैरीबाल्डी उसका सहायक बना। लेकिन कुछ समय के बाद फ्रांस के सम्राट · नेपोलियन तृतीय ने एक विशाल सेना भेजकर रोम के गणतन्त्र का अन्त कर दिया और पोप को पुनः रोम का राजा बना दिया। इसके परिणामस्वरूप मेत्सिनी और गैरीबाल्डी को वहाँ से भागने के लिए विवश होना पड़ा।
मेत्सिनी अपने विचारों का प्रचार करता रहा। 1860 ई० में उसके प्रयत्नों के फलस्वरूप सिसली के रिजो (Riso), रासलिनपिलो (Raslinpilo), प्लम्बर ( Plumber) आदि स्थानों में क्रान्ति हो गई। लेकिन इन विद्रोहियों को अपने उद्देश्य में सफलता न मिल सकी। इस प्रकार मेत्सिनी को अपनी कल्पनाओं और आदर्शों के अनुकूल इटली के गणतन्त्र की स्थापना में सफलता न मिल सकी । अन्त में 1872 ई० में इस महान् | देशभक्त की मृत्यु हो गई।
तथा तक मेत्सिनी का मूल्यांकन – इटली के स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में मेत्सिनी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वह एक आदर्शवादी और क्रान्तिकारी विचारक था। वह कट्टर देशभक्त और सच्चा गणतन्त्रवादी था। उसने इटली के एकीकरण के लिए हर सम्भव प्रयत्न किए। वह वास्तविक अर्थ में स्वतन्त्रता का पैगम्बर तथा राष्ट्र-निर्माता था
(ख) काउंट कैमिलो दे कावूर
कावूर का जीवन परिचय – इटली के एकीकरण में सबसे अधिक शक्तिशाली भूमिका का निर्वाह करने वाला व्यक्ति कावूर था। वह कट्टर देशभक्त और राजतन्त्रवादी था । उसका जन्म 1810 ई० में पीडमाण्ट के त्यूरिन नगर में हुआ था। उसका पिता मारक्विस दे कावूर एक कुलीन सामन्त था । कावूर शिक्षा प्राप्त करके इन्जीनियर के पद पर कार्य करने लगा, परन्तु कार्य में रुचि न होने के कारण वह 1831 ई० में नौकरी छोड़कर अपनी जागीर की देखभाल करने लगा। उसने 1831 ई० से 1843 ई० तक इतिहास और अर्थशास्त्र का अध्ययन किया और इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा स्विट्जरलैण्ड की यात्राएँ कीं। वह इटली की दशा पर बहुत दुःखी हुआ, उसने विचार किया कि “यदि मैं अंग्रेज होता तो अब तक कुछ बन गया होता और मैं पूर्णतया अनजान न रहता । “
उसने यूरोप के विभिन्न देशों की सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन किया। 1847 ई० में वह एक समाचार-पत्र का सम्पादन करने लगा। धीरे-धीरे उसकी प्रसिद्धि चारों ओर फैलने लगी और वह इटली के एकीकरण के कार्य में संलग्न हो गया।
1848 ई० में कावूर को पीडमाण्ट की संसद का सदस्य चुन लिया गया। उसने विधानसभा द्वारा अनेक जनहितकारी कानून पारित करवाए। 1850 ई० में वह कृषि एवं वाणिज्य मन्त्री बन गया। 1851 ई० में वह पीडमाण्ट का अर्थमन्त्री बना। उसकी योग्यता और कार्यकुशलता से प्रभावित होकर पीडमाण्ट के शासक विक्टर इमैनुअल द्वितीय ने 1852 ई० में उसे अपना प्रधानमन्त्री नियुक्त कर दिया।
कावूर की नीति और उद्देश्य – कावूर इटली का एकीकरण करने के लिए बहुत उत्सुक था। 1848 ई० की क्रान्तियों की असफलता को देखकर उसने यह अनुभव कर लिया था कि इटली स्वयं अपना संगठन करने में कभी भी सफल न हो सकेगा, क्योंकि यूरोप के बड़े राष्ट्र इटली के एकीकरण के पक्ष नहीं थे। अतः कावूर ने यूरोप के किसी बड़े राष्ट्र का सहयोग प्राप्त करने का निश्चय किया। उसका विचार था – ” बिना एक मित्र के इटली का संघर्ष उस कूटनीतिक दबाव के नीचे टूट जाएगा जो कि इटली की स्थिति को बनाए रखने के लिए काम में लाया जाएगा।”
कावूर यह समझ चुका था कि इटली का सबसे बड़ा शत्रु आस्ट्रिया ही है और आस्ट्रिया को पराजित किए बिना इटली का एकीकरण करना असम्भव है। i
कावूर ने यह भी अनुभव किया कि सार्डीनिया जब तक आर्थिक और सैनिक दृष्टि से शक्तिशाली नहीं बन जाएगा, तब तक वह संगठित इटली का नेतृत्व नहीं कर सकेगा। इसलिए उसने सार्डीनिया को आर्थिक और सैन्य दृष्टि सशक्त बनाने का प्रयास किया।
कावूर का मूल्यांकन – कावूर आधुनिक इटली का मुख्य निर्माता था। वह बड़ा साहसी, वीर, दूरदर्शी, राजनीतिज्ञ और सफल कूटनीतिज्ञ था। वह कट्टर देशभक्त, प्रजातन्त्र का पोषक और उदारहृदय व्यक्ति था । वह | अपने समय का सर्वश्रेष्ठ राजनीतिज्ञ था ।
(ग) यूनानी स्वतन्त्रता युद्ध
19वीं सदी के तीसरे और चौथे दशक में यूरोप में एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना घटित हुई। इस घटना ने पूरे यूरोप के शिक्षित अभिजात वर्ग में राष्ट्रीय भावनाओं का संचार कर दिया। यह घटना थी— यूनानी स्वतन्त्रता युद्ध । पन्द्रहवीं सदी से यूनान ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा था। यूरोप में क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद की प्रगति से यूनानियों का आजादी के लिए संघर्ष 1821 ई० में आरम्भ हो गया था। यूनानी राष्ट्रवादियों को निर्वासन में रह रहे यूनानियों के साथ पश्चिमी यूरोप के अनेक देशों के लोगों का भी समर्थन प्राप्त हुआ। ये लोग प्राचीन यूनानी संस्कृति के प्रति विशेष सहानुभूति रखते थे। कवियों और कलाकारों ने यूनान को यूरोपीय सभ्यता का पालना बताकर प्रशंसा की और एक मुस्लिम साम्राज्य के विरुद्ध यूनान के संघर्ष के लिए जनमत जुटाया। अंग्रेज कवि लॉर्ड बायरन ने धन एकत्र किया और युद्धभूमि में लड़ने भी गए जहाँ 1824 ई० में बीमारी के कारण उनका निधन हो गया। अन्तत: 1832 ई० की कुस्तुनतुनिया की संधि ने यूनान को एक स्वतन्त्र राष्ट्र की मान्यता दी। इस युद्ध के महत्त्व को निम्न प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं-
  1. इस युद्ध ने यूरोप में प्रतिक्रियावाद की जड़ें हिला दीं।
  2. रूस का अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में काफी महत्त्व बढ़ गया।
  3. इस युद्ध के फलस्वरूप यूनान एक स्वतन्त्र राज्य बन गया और यूनानी अपनी प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति का विकास करने लगे।
(घ) फ्रैंकफर्ट संसद
फ्रांस की 1848 ई० की क्रान्ति का जर्मनी पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इस समय जर्मन देशभक्तों अपने दो उद्देश्य निश्चित कर लिए थेप्रथम, जर्मन राज्यों में निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी शासन का अन्त करके लोकतन्त्र शासन की स्थापना करना और द्वितीय, जर्मनी के विभिन्न राज्यों का संगठन करके जर्मनी का पूर्ण एकीकरण करना ।
इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जर्मनी के देशभक्तों ने मैटरनिख के पतन का समाचार सुनकर स्थान-स्थान पर क्रान्तिकारी गतिविधियाँ प्रारम्भ . कर दी। प्रशा के सम्राट फ्रेड्रिक विलियम ने अपने राज्य में उदारवादी संविधान लागू करके यह घोषणा की कि वह जर्मनी के एकीकरण के लिए पूर्ण प्रयत्न करेगा। इस घोषणा से प्रभावित होकर अन्य राज्यों के क्रान्तिकारियों ने अपने राजाओं के समक्ष निम्नलिखित माँगें रखीं-
  1. संवैधानिक सरकार की स्थापना की जाए।
  2. प्रेस तथा विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता दी जाए।
  3. जर्मन राज्य संघ के लिए एक शक्तिशाली संघात्मक संविधान बनाया जाए।
जर्मनी के सभी राजाओं ने क्रान्तिकारियों की उक्त सभी माँगें स्वीकार कर लीं। तत्पश्चात् जर्मनी के देशभक्तों ने 1848 ई० में फ्रैंकफर्ट नामक स्थान पर एक राष्ट्रीय सभा का अधिवेशन बुलाया। इस अधिवेशन में जर्मनी के सभी राज्यों से निर्वाचित 568 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सभा का उद्देश्य सम्पूर्ण जर्मनी के लिए एक उदारवादी संविधान का निर्माण करना था। लेकिन यह सभा अपना कार्य सुचारु रूप से करने में असफल रही, क्योंकि इसने काफी समय मौलिक अधिकारों पर बहस करने में ही नष्ट कर दिया। अन्त में एक वर्ष पश्चात् राष्ट्रीय सभा ने एक संविधान बनाया, जिसके अनुसार दो सदनों वाली एक व्यवस्थापिका निर्मित की गई। कार्यपालिका का प्रमुख प्रशा का सम्राट बनाया गया, जिसका पद वंशानुगत रखा गया। लेकिन जब सभी ने प्रशा के सम्राट को जर्मनी का राजमुकुट ग्रहण करने के लिए आमन्त्रित किया तो उसने आस्ट्रिया के भय से जर्मनी का राजमुकुट स्वीकार करने से इनकार कर दिया। 3 अप्रैल, 1849 ई० पानी फेर दिया। लेकिन प्रशा के सम्राट ने निम्नलिखित कारणों से जर्मनी को प्रशा के सम्राट की अस्वीकृति ने जर्मनी के देशभक्तों की आशाओं पर की राजमुकुट ग्रहण करना ठीक न समझा-
  1. प्रशा के सम्राट फ्रेड्रिक विलियम का विचार था कि जब वह जर्मनी का सम्राट बन जाएगा तो आस्ट्रिया से उसकी शत्रुता हो जाएगी, जिससे उसके साथ युद्ध करना अनिवार्य हो जाएगा।
  2. प्रशा के सम्राट को जर्मनी का राजमुकुट जर्मन जनता द्वारा मिल रहा था अतः वह इसे क्रान्तिकारी भावनाओं से युक्त ‘Crown of Shame’ समझता था ।
  3. राष्ट्रीय सभा ने जर्मनी के लिए 1849 ई० का जो संविधान बनाया था, उसमें राजा के अधिकारों को काफी सीमित रखा गया । इसलिए प्रशा के सम्राट ने जर्मनी के राजमुकुट को ठुकरा दिया।
प्रशा के सम्राट की अस्वीकृति से जर्मनी के देशभक्तों का जोश ठण्डा पड़ गया और इस समय तक आस्ट्रिया भी अपनी आन्तरिक क्रान्ति का दमन करने में सफल हो गया। अतः प्रशा का अनुसरण करके अन्य जर्मन राज्यों ने 1849 ई० का संविधान अस्वीकार कर दिया और अपनी सेनाएँ भेज फ्रैंकफर्ट की सभा को भंग कर दिया। इस प्रकार जर्मन देशभक्तों का यह प्रयास भी विफल हो गया और सम्पूर्ण जर्मनी में पुन: निरंकुश शासन की स्थापना हो गई। हेज (Hayes ) ने लिखा है – ” आस्ट्रिया की शत्रुता ने ही इस क्रान्ति को विफल कर दिया और जर्मनी के देशभक्त यह अनुभव करने लगे कि जर्मन एकता का सबसे बड़ा शत्रु आस्ट्रिया ही है । “
(ङ) राष्ट्रवादी संघर्षों में महिलाओं की भूमिका
राष्ट्रवादी आन्दोलनों में महिलाओं ने सक्रिय रूप से भाग लिया। फ्रांसीसी समाज में इतने महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाने वाली गतिविधियों में महिलाएँ सक्रिय रूप से शामिल थीं। उन्हें आशा थी कि उनकी भागीदारी राष्ट्रवादी सरकार को उनका जीवन सुधारने के लिए ठोस कदम उठाने के लिए प्रेरित करेगी। महिलाओं ने अपने हितों की हिमायत करने के लिए खुद के राजनीतिक क्लब शुरू किए और समाचार-पत्र प्रकाशित किए। ओलम्प दे गूज क्रान्तिकालीन फ्रांस की राजनीतिक रूप से सक्रिय महिलाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण थी। उन्होंने 1791 ई० में ‘महिला एवं नागरिक अधिकार घोषणा पत्र’ तैयार किया जिसे महारानी और नेशनल असेम्बली के सदस्यों के पास यह माँग करते हुए भेजा कि इस पर कार्यवाही की जाए। 1793 ई० ओलम्पदे गूज ने महिला क्लबों को बलपूर्वक बन्द कर देने के लिए जैकोबिन सरकार की आलोचना की। उन पर नेशनल कन्वेन्शन द्वारा देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया। इसके तुरन्त बाद उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया।
जर्मनी में भी जब सेंट पॉल चर्च में फ्रैंकफर्ट संसद की सभा आयोजित की गई थी तब महिलाओं ने केवल प्रेक्षकों के रूप में भाग लिया था उन्हें दर्शक दीर्घा में खड़े होने दिया गया।
प्रश्न 2 – फ्रांसीसी लोगों के बीच सामूहिक पहचान का भाव पैदा करने के लिए फ्रांसीसी क्रान्तिकारियों ने क्या कदम उठाए ?
उत्तर – फ्रांसीसी लोगों के बीच सामूहिक पहचान का भाव पैदा करने के लिए फ्रांस के क्रान्तिकारियों ने निम्नलिखित कदम उठाए-
  1. चित्रों द्वारा जनतन्त्र की कल्पना – फ्रांसीसी चित्रकारों ने ऐसे चित्र बनाए जिनके माध्यम से उन्होंने ऐसे संसार की कल्पना की जो जनतान्त्रिक हो, जिसमें सभी उम्र और सामाजिक वर्ग के स्त्री-पुरुष समान रूप से भाग लें। वे चाहते थे फ्रांस में निरंकुश राजतन्त्र का अन्त हो । सभी लोग स्वतन्त्रता, समानता और भाई-चारे के सिद्धान्तों को अपनाएँ ।
  2. राष्ट्र की नई परिभाषा – कुछ दार्शनिकों, जैसे अर्न्स्ट रेनन ने राष्ट्र शब्द की नई परिभाषा दी। उसके अनुसार एक राष्ट्र लम्बे प्रयासों, त्याग और निष्ठा का चरम बिन्दु होता है। उन्होंने किसी भू-भाग को राष्ट्र नहीं बताया बल्कि उसमें रहने वाले लोगों को राष्ट्र बताया।
  3. सामूहिक पहचान की भावना – प्रारम्भ में ही फ्रांसीसी क्रान्तिकारियों ने ऐसे अनेक कदम उठाए जिनसे फ्रांसीसी लोगों में एक सामूहिक पहचान की भावना पैदा सकती थी । पितृभूमि और नागरिक जैसे विचारों ने एक संयुक्त समुदाय के विचार पर जोर दिया जिसे एक संविधान के अन्तर्गत समान अधिकार प्राप्त थे ।
  4. समानता की भावना – फ्रांस में क्रान्ति के दौरान नई रचनाएँ रची गईं, शपथ ली गईं, शहीदों का गुणगान हुआ और यह सब राष्ट्र के नाम पर हुआ। एक केन्द्रीय प्रशासनिक व्यवस्था लागू की गई जिसने अपने भू-भाग में रहने वाले सभी नागरिकों के लिए समान कानून बनाए । आन्तरिक आयात-निर्यात शुल्क समाप्त कर दिए गए और मापन या नाप-तौल की एक व्यवस्था लागू की गई। क्षेत्रीय बोलियों को हतोत्साहित किया गया और पेरिस में फ्रेंच जैसी बोली और लिखी जाती थी, वही राष्ट्र की साझा भाषा बन गई।
प्रश्न 3 – मारीआन और जर्मेनिया कौन थे? जिस तरह उन्हें चित्रित किया गया, उसका क्या महत्त्व था ?
अथवा मारीआन और जर्मेनिया के चित्रों का महत्त्व बताइए ।
उत्तर—  यूरोप में राष्ट्रवादी और लोकतान्त्रिक क्रान्तियों के काल में किसी शासक को एक चित्र या प्रतिमा के रूप में अभिव्यक्त करना सरल था लेकिन एक राष्ट्र को चेहरा कैसे दिया जा सकता है? लेकिन 18वीं और 19वीं सदी के यूरोपीय कलाकारों ने अपने-अपने राष्ट्र का मानवीकरण करके इस प्रश्न का हल निकाल लिया। उन्होंने अपने देश को कुछ इस प्रकार चित्रित किया जैसे वह कोई व्यक्ति हो ।
उस समय यूरोपीय राष्ट्रों को नारी स्वरूप में प्रस्तुत किया जाता था। यह राष्ट्र के अमूर्त विचार को मूर्त रूप प्रदान करने का प्रयास था। नारी की छवि राष्ट्र का रूपक बन गई थी। फ्रांस की मारीआन की तसवीर इसी प्रकार की एक क्रान्तिकालीन चित्रकारों द्वारा तैयार की गई तसवीर थी।
स्वतन्त्रता की प्रतीक लाल टोपी या टूटी जंजीर है और न्याय को साधारणतया एक ऐसी महिला के प्रतीकात्मक रूप में व्यक्त किया जाता है जिसकी आँखों पर पट्टी बँधी हुई है और वह तराजू लिए हुए है। इसी प्रकार के नारी रूपकों को कलाकारों ने 19वीं सदी में तैयार किया था। फ्रांस में उसे लोकप्रिय ईसाई नाम मारीआन दिया गया जिसने जन राष्ट्र के विचार को रेखांकित किया। उसके चिह्न भी स्वतन्त्रता और गणतन्त्र के थे – लाल टोपी, तिरंगा और कलगी।
मारीआन की प्रतिमाएँ सार्वजनिक चौकों पर लगाई गईं ताकि जनता को एकता के राष्ट्रीय प्रतीक की स्मृति बनी रहे और लोग उससे तादात्म्य स्थापित कर सकें। मारीआन की छवि डाक टिकटों और सिक्कों पर भी अंकित की गई।
इसी प्रकार जर्मेनिया, जर्मन राष्ट्र का रूपक बन गया। चाक्षुष अभिव्यक्तियों में जर्मेनिया बलूत वृक्ष के पत्तों का मुकुट पहनती है क्योंकि जर्मन बलूत वीरता का प्रतीक है।
प्रश्न 4 – जर्मन एकीकरण की प्रक्रिया का संक्षेप में पता लगाएँ ।
उत्तर- जर्मनी का एकीकरण 
  1. 1848 ई० के बाद जर्मनी की दशा – फ्रैंकफर्ट की सन्धि की असफलता ने जर्मनी के उदारवादियों की आशाओं पर पानी फेर दिया और वे बहुत निराश हो गए। एकीकरण के सभी प्रयत्नों की असफलता ने जर्मनी की राष्ट्रीय भावनाओं को गहरी ठेस पहुँचाई। 1849 ई० में जर्मन देशभक्तों ने प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करने का प्रयास किया, परन्तु प्रशा के राजा ने जर्मनी का ताज ग्रहण करने से इनकार कर दिया क्योंकि उसका विचार था कि ऐसा करने से उसे आस्ट्रिया से युद्ध अवश्य करना पड़ेगा। अतः जर्मनी में पुनः निरंकुश शासन प्रणाली स्थापित गई।
  2. प्रशा के राजा के प्रयास – इस समय प्रशा का राजा फ्रेड्रिक विलियम चतुर्थ था। फ्रैंकफर्ट की राष्ट्रीय सभा भंग होने के बाद उसने जर्मनी के एकीकरण का प्रयास किया। उसने बवेरिया, बरटमबर्ग, हैनोवर तथा सैक्सनी आदि जर्मन राज्यों से सन्धि करके अरफर्ट (Erfurt) में एक जर्मन संघ का निर्माण किया। आस्ट्रिया ने प्रशा के इस कार्य का विरोध किया और स्थिति यह हो गई कि आस्ट्रिया और प्रशा में युद्ध छिड़ जाने की | सम्भावना दिखाई पड़ने लगी। आस्ट्रिया के विरोध को देखकर बवेरिया, बरटमबर्ग तथा सैक्सनी के राजाओं ने भयभीत होकर जर्मन संघ की सदस्यता त्याग दी। अन्त में प्रशा के राजा ने भी नवम्बर 1800 ई० में आस्ट्रिया के साथ ओल्मुज की सन्धि (Treaty of Olmuta) कर ली. जिसके अनुसार उसे वियना कांग्रेस द्वारा निर्मित 39 राज्यों के जर्मन राज्य संघ को पुनः मान्यता देनी पड़ी। इस प्रकार आस्ट्रिया का जर्मनी पर पुन: नियन्त्रण स्थापित हो गया। लेकिन जर्मनी के देशभक्त यह समझ गए कि प्रशा का राजा जर्मनी के एकीकरण के पक्ष में है, परन्तु आस्ट्रिया के विरोध के कारण वह जर्मनी का एकीकरण नहीं कर पा रहा है। अतः वे आस्ट्रिया के शत्रु बन गए और उनकी सहानुभूति प्रशा के राजा के प्रति हो गई।
  3. प्रशा की शक्ति का उत्थान – प्रशा के राजा फ्रेड्रिक विलियम चतुर्थ मस्तिष्क की बीमारी के कारण 2 जनवरी, 1861 ई० को परलोक सिधार गया और उसका भाई विलियम प्रथम, जो 1858 ई० से रीजेण्ट (Regent) का कार्य कर रहा था, प्रशा का सम्राट बना। विलियम प्रथम के राज्यारोहण से प्रशा में एक नए युग का प्रादुर्भाव हुआ। वह बड़ा साहसी, अनुभवी और योग्य सैनिक था। गद्दी पर आसीन होने के समय उसकी आयु 63 वर्ष थी। उसका अधिकांश जीवन युद्धों में ही व्यतीत हुआ था। वह एक बुद्धिमान एवं दूरदर्शी व्यक्ति था और उसका विचार था कि प्रशा की प्रगति सैन्य शक्ति के विस्तार से ही हो सकती है और प्रशा के शक्तिशाली होने पर जर्मनी के एकीकरण की सम्भावना बन सकती है।
    अतः विलियम प्रथम ने सर्वप्रथम प्रशा की सैन्य शक्ति का विस्तार करना आरम्भ कर दिया। इसी समय 1862 ई० में उसने बिस्मार्क को अपना प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। बिस्मार्क बड़ा योग्य तथा दृढ़ निश्चय का व्यक्ति था। उसने प्रधानमन्त्री बनते ही प्रशा के निम्न सदन की उपेक्षा करके विलियम प्रथम की सुधारवादी योजनाओं को सफल बनाना शुरू कर दिया।
  4. बिस्मार्क की नीति – बिस्मार्क ‘रक्त और लौह’ (Blood and Iron) की नीति का अनुगामी था। वह बड़ा साहसी और निर्भीक व्यक्ति था। उसने प्रधानमन्त्री बनते समय किसी के समक्ष नकारात्मक न होने की प्रतिज्ञा की थी। उसने अपनी योग्यता से विलियम प्रथम और संसद के उच्च सदन का समर्थन प्राप्त कर लिया था। राज्य की कार्यपालिका और सेना पर उसका पूर्ण नियन्त्रण स्थापित हो चुका था ।
  5. बिस्मार्क द्वारा जर्मनी का एकीकरण – बिस्मार्क महान् कूटनीतिज्ञ था। उसने प्रशा का सैन्य संगठन सुदृढ़ करके जर्मनी का एकीकरण करने का निश्चय किया।
फ्रांस को पराजित करके बिस्मार्क ने जर्मनी का एकीकरण पूर्ण कर दिया। 18 जनवरी, 1871 ई० को वर्साय के शीशमहल में प्रशा के सम्राट विलियम प्रथम को महान् जर्मन साम्राज्य का सम्राट घोषित किया गया। बिस्मार्क ने घोषणा करते हुए कहा – ” जर्मनी का राज्य संघ अब जर्मन साम्राज्य के नाम से पुकारा जाएगा। जर्मन राज्यों के शासक पूर्ववत् इसके सदस्य बने होंगे। जर्मन साम्राज्य का संविधान वही पहले वाला संघीय संविधान रहेगा। राजा विलियम प्रथम जर्मनी का सम्राट कहलाएगा और उसे ‘कैसर विलियम प्रथम’ की उपाधि प्राप्त होगी।”
इस प्रकार बिस्मार्क ने जर्मनी का एकीकरण पूरा करके यूरोप के इतिहास में एक नवीन युग का सूत्रपात किया ।
प्रश्न 5 – अपने शासन वाले क्षेत्रों में शासन व्यवस्था को ज्यादा कुशल बनाने के लिए नेपोलियन ने क्या बदलाव किए?
उत्तर – नेपोलियन के नियन्त्रण में जो विशाल क्षेत्र आया वहाँ उसने ऐसे अनेक सुधारों की शुरुआत की जिन्हें फ्रांस में पहले ही आरम्भ किया जा चुका था। फ्रांस में राजतन्त्र वापस लाकर नेपोलियन ने निःसन्देह वहाँ प्रजातन्त्र को नष्ट किया था। मगर प्रशासनिक क्षेत्र में उसने क्रान्तिकारी सिद्धान्तों का समावेश किया था। 1804 ई० की नागरिक संहिता जिसे आमतौर पर नेपोलियन की संहिता के नाम से जाना जाता है, ने जन्म पर आधारित विशेषाधिकार समाप्त कर दिए थे। नेपोलियन ने कानून के समक्ष समानता और सम्पत्ति के अधिकार को सुरक्षित बनाया। इस संहिता को फ्रांसीसी नियन्त्रण के अधीन क्षेत्रों में भी लागू किया गया। उसने सामन्ती व्यवस्था को समाप्त किया और किसानों को भू- दासत्व और जागीरदारी शुल्कों से मुक्ति दिलाई। नगरों में भी कारीगरों के श्रेणी संघों के नियन्त्रणों को हटा दिया गया। यातायात और संचार व्यवस्थाओं को सुधारा गया। किसानों, कारीगरों, मजदूरों और नए उद्योगपतियों ने नई-नई मिली आजादी का आनन्द लिया।
• चर्चा करें
प्रश्न 1- उदारवादियों की 1848 की क्रान्ति का क्या अर्थ लगाया जाता है? उदारवादियों ने किन राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक विचारों को बढ़ावा दिया?
उत्तर- उदारवादियों की 1848 ई० की क्रान्ति का अर्थ लगाया गया— राजतन्त्र के स्थान पर लोकतन्त्र और गणराज्य की स्थापना, गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी से पीड़ित किसान, मजदूर, विद्रोहियों की माँगों को पूरा करने के लिए सार्वजनिक मताधिकार पर आधारित जनप्रतिनिधि सभाओं का निर्माण और यूरोप में स्वतन्त्र राष्ट्र के निर्माण की माँग को आगे बढ़ाना।
उदारवादियों की इस क्रान्ति का आशय राष्ट्रीय राज्यों में संविधान बनाना, प्रेस को स्वतन्त्रता देना और किसान तथा श्रमिकों आदि को संगठन बनाने की स्वतन्त्रता जैसे संसदीय सिद्धान्तों पर आधारित शासन व्यवस्था की स्थापना करना था।
उदारवादियों ने जिन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक विचारों को बढ़ावा दिया, वे निम्नलिखित थे-
  1. मताधिकार के प्रयोग से सरकार का चयन।
  2. महिलाओं को राजनीतिक अधिकार प्रदान करना लेकिन सभी उदारवादी इस विषय में एकमत नहीं थे।
  3. बहुत-से देशों में उदारवादी विचारों से प्रभावित होकर भू- दासत्व, बँधुआ मजदूरी समाप्त कर दी गई।
प्रश्न 2 – यूरोप में राष्ट्रवाद के विकास में संस्कृति के योगदान को दर्शाने के लिए तीन उदाहरण दें।
उत्तर- यूरोप में राष्ट्रवाद के विकास में संस्कृति का योगदान
उदाहरण I – प्रथम उदाहरण के रूप में हम रूमानीवाद नामक सांस्कृतिक आन्दोलन को ले सकते हैं। रूमानीवाद एक ऐसा सांस्कृतिक आन्दोलन था जो विशिष्ट प्रकार की राष्ट्रीय भावना का विकास करना चाहता था।
उदाहरण II – द्वितीय उदाहरण के रूप में हम क्षेत्रीय बोलियों को ले सकते हैं। क्षेत्रीय बोलियाँ राष्ट्र-निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती थीं, क्योंकि यही यथार्थ रूप में आधुनिक राष्ट्रवादियों के सन्देश को बड़ी जनसंख्या तक पहुँचाती थी जो अधिकांशतः निरक्षर थी।
उदाहरण III – तृतीय उदाहरण के रूप में हम संगीत को ले सकते हैं। कैरोल कुर्पिस्की, एक पोलिश नागरिक, ने राष्ट्रीय संघर्ष का अपने ऑपेरा में संगीत के रूप में गुणगान किया और पोलेनेस और माजुरला जैसे लोकनृत्यों को राष्ट्रीय प्रतीकों में बदल दिया।
प्रश्न 3 – किन्हीं दो देशों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए बताएँ कि उन्नीसवीं सदी में राष्ट्र किस प्रकार विकसित हुए?
प्रश्न 4- ब्रिटेन में राष्ट्रवाद का इतिहास शेष यूरोप की तुलना में किस प्रकार भिन्न था ?
उत्तर – 19वीं सदी में राष्ट्र विभिन्न तरीकों से विकसित हुए। उदाहरण के लिए,
  1. इटली – साडीनिया पीडमाण्ट और उनके विभिन्न भागों जैसे आस्ट्रिया आदि के शासकों के साथ हुए अनेक युद्धों के बाद उभरा। लेकिन यह केवल कूटनीतिक कौशल से सम्भव हो सका।
  2. दूसरी ओर ब्रिटेन का खून-खराबे का कोई ‘इतिहास नहीं है। वहाँ एक जातीय समूह – अंग्रेजों ने अन्य जातीय समूह पर अपना दबदबा कायम किया और एक नया ब्रितानी राष्ट्र बनाया और आंग्ल संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया। नए ब्रिटेन के प्रतीक चिह्नों- झण्डा और राष्ट्रगान को खूब बढ़ावा दिया गया।
प्रश्न 5 – बाल्कन प्रदेशों में राष्ट्रवादी तनाव क्यों पनपा ?
उत्तर – बाल्कन प्रदेशों में राष्ट्रवादी तनाव पनपने के निम्नलिखित कारण थे—
  1. बाल्कन प्रदेशों में विभिन्न जातीय समूह निवास करते थे।
  2. इन जातीय समूहों में आपस में संघर्ष होता रहता था ।
  3. पूरे क्षेत्र पर ऑटोमन साम्राज्य का आधिपत्य था जो अपने पतन के कगार पर था।
  4. इसी समय स्लाव – बाल्कन के जातीय समूह भी उदारवादी और राष्ट्रवादी विचारों से प्रभावित हुए बिना न रह सके। अतः ये सभी जातीय समूह अपने लिए व्यक्तिगत राष्ट्र-राज्य की माँग करने लगे। इसी समय उनके बीच कटुतापूर्ण संघर्ष भी चलता रहा। वे सभी अपने लिए अधिकसे-अधिक क्षेत्र हथियाना चाहते थे।
  5. इंग्लैण्ड, जर्मनी, रूस, ऑस्ट्रो-हंगरी जैसी शक्तियाँ बाल्कन पर अन्य शक्तियों की पकड़ को कमजोर करके क्षेत्र में अपने प्रभाव को बढ़ाना चाहती थीं।
  6. बाल्कन के जल- क्षेत्र पर नियन्त्रण करके उन्होंने यूरोप नौसैनिक प्रभुत्व स्थापित करने की भी योजना बनाई थी।
इन सभी कारणों से बाल्कन प्रदेशों में राष्ट्रवादी तनाव विकसित हुआ

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

• विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – 19वीं सदी में राष्ट्रवाद के विकास के लिए यूरोप में कौन-से कारक उत्तरदायी थे ?
अथवा यूरोप में राष्ट्रवाद के उदय के क्या कारण थे?
उत्तर- उन्नीसवीं सदी के अन्तिम चौथाई भाग तक राष्ट्रवाद का आदर्शवादी-उदारवादी-जनतान्त्रिक स्वभाव समाप्त हो गया जो सदी के प्रथम भाग में था। अब राष्ट्रवाद सीमित लक्ष्यों वाला संकीर्ण सिद्धान्त बन गया। इस बीच के दौर में राष्ट्रवादी समूह एक-दूसरे के प्रति अनुदार होते चले गए और लड़ने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। साथ ही प्रमुख यूरोपीय शक्तियों ने भी अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अधीन लोगों की राष्ट्रवादी आकांक्षाओं का इस्तेमाल किया ।
1871 ई० के पश्चात् यूरोप में गम्भीर राष्ट्रवादी तनाव का स्रोत बाल्कन क्षेत्र था। इस क्षेत्र में भौगोलिक और जातीय भिन्नता थी। इसमें आधुनिक रोमानिया, बुल्गेरिया, अल्बेनिया, यूनान, मेसिडोनिया, क्रोएशियाबोस्निया हर्जेगोविना, स्लोवेनिया, सर्बिया और मॉण्टिनिग्रो शामिल थे। क्षेत्र के निवासियों को आमतौर पर स्लाव कहकर पुकारा जाता था। बाल्कन क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा ऑटोमन साम्राज्य के नियन्त्रण में था। बाल्कन क्षेत्र में रूमानी राष्ट्रवाद के विचारों के फैलने और ऑटोमन साम्राज्य के विघटन से स्थिति अधिक विस्फोटक हो गई। उन्नीसवीं सदी में ऑटोमन साम्राज्य ने आधुनिकीकरण और आन्तरिक सुधारों के जरिए मजबूत बनना चाहा था, किन्तु इसमें इसे बहुत कम सफलता मिली। एक बाद एक उसके अधीन यूरोपीय राष्ट्रीयताएँ उसके चंगुल से निकलकर स्वतन्त्रता की घोषणा करने। दिया किया लगीं। बाल्कन लोगों ने स्वतन्त्रता या राजनीतिक अधिकारों के अपने दावों को राष्ट्रीयता का आधार दिया। उन्होंने इतिहास का इस्तेमाल यह सिद्ध करने लिए किया कि वे कभी स्वतन्त्र थे तत्पश्चात् विदेशी शक्तियों ने उन्हें अधीन कर लिया। अतः बाल्कन क्षेत्र के विद्रोही राष्ट्रीय समूहों ने अपने संघर्षो को लम्बे समय से खोई आजादी को वापस पाने के प्रयासों के रूप में देखा।
जैसे-जैसे विभिन्न स्लाव राष्ट्रीय समूहों ने अपनी पहचान और स्वतन्त्रता की परिभाषा तय करने की कोशिश की, बाल्कन क्षेत्र गहरे टकराव का क्षेत्र बन गया। बाल्कन राज्य एक-दूसरे से भारी ईर्ष्या करते थे | और प्रत्येक राज्य अपने लिए अधिक-से-अधिक क्षेत्र हथियाने की उम्मीद रखता था । परिस्थितियाँ और अधिक कठिन इसलिए हो गई क्योंकि बाल्कन क्षेत्र में बड़ी शक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा होने लगी थी। इस समय यूरोपीय शक्तियों के बीच व्यापार और उपनिवेशों के साथ नौसैनिक और सैन्य ताकत के लिए गहरी प्रतिस्पर्धा थी। जिस तरह बाल्कन समस्या आगे बढ़ी उसमें यह प्रतिस्पर्धाएँ खुलकर सामने आईं। रूस, जर्मनी, इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रो-हंगरी की हर ताकत बाल्कन पर अन्य शक्तियों की पकड़ को कमजोर करके क्षेत्र में अपने प्रभाव को बढ़ाना चाहती थी। इससे इस क्षेत्र में कई युद्ध हुए और अन्ततः प्रथम विश्वयुद्ध हुआ ।
साम्राज्यवाद से जुड़कर राष्ट्रवाद 1914 ई० में यूरोप को महाविपदा की ओर ले गया। लेकिन इस बीच विश्व के अनेक देश जिनका उन्नीसवीं सदी में यूरोपीय शक्तियों ने औपनिवेशीकरण किया था, साम्राज्यवादी प्रभुत्व का विरोध करने लगे। हर तरफ जो साम्राज्य विरोधी आन्दोलन विकसित हुए इस अर्थ में राष्ट्रवादी थे कि वे सभी स्वतन्त्र राष्ट्र राज्य का निर्माण करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। वे सभी एक सामूहिक राष्ट्रीय एकता की भावना से प्रेरित थे जो साम्राज्यवाद। विरोध की प्रक्रिया के रूप में सामने आई। राष्ट्रवाद के यूरोपीय विचार में कहीं और नहीं दोहराए गए क्योंकि हर जगह लोगों ने अपनी तरह का विशिष्ट राष्ट्रवाद विकसित किया। मगर यह विचार कि समाजों को ‘राष्ट्र राज्यों में गठित किया जाना चाहिए, अब स्वाभाविक और सार्वभौम मान लिया गया।
प्रश्न 2 – 1789 ई० की फ्रांस की क्रान्ति के परिणामों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- फ्रांस की क्रान्ति के परिणाम
फ्रांस की क्रान्ति ( 1789 ई०) विश्व की एक महानतम घटना थी । इसके बड़े दूरगामी परिणाम हुए, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं—
  1. इस क्रान्ति ने सदियों से चली आ रही यूरोप की पुरातन व्यवस्था (Ancient Regime) का अन्त कर दिया ।
  2. इस क्रान्ति की महत्त्वपूर्ण देन मध्यकालीन समाज की सामन्ती व्यवस्था का अन्त करना है।
  3. फ्रांस के क्रान्तिकारियों द्वारा की गई ‘मानव अधिकारों की घोषणा’ ( 27 अगस्त, 1789 ई०), मानव जाति की स्वाधीनता के लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण है।
  4. इस क्रान्ति ने समस्त यूरोप में राष्ट्रीयता की भावना का विकास और प्रसार किया। परिणामस्वरूप यूरोप के अनेक देशों में क्रान्तियों का सूत्रपात हुआ।
  5. फ्रांस की क्रान्ति ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा को जन्म दिया।
  6. इस क्रान्ति ने लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
  7. फ्रांसीसी क्रान्ति ने मानव जाति को स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व का नारा प्रदान किया।
  8. इस क्रान्ति ने इंग्लैण्ड, आयरलैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशों की विदेश नीति को प्रभावित किया।
  9. कुछ विद्वानों के अनुसार फ्रांस की क्रान्ति समाजवादी विचारधारा का स्त्रोत थी, क्योंकि इसने समानता का सिद्धान्त प्रतिपादित कर समाजवादी व्यवस्था का मार्ग भी खोल दिया था।
  10. इस क्रान्ति के फलस्वरूप फ्रांस ने कृषि, उद्योग, कला, साहित्य, राष्ट्रीय शिक्षा तथा नैतिक गौरव के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व प्रगति की।
प्रश्न 3–1815 की वियना सन्धि के उद्देश्य स्पष्ट रूप से समझाइए।
उत्तर – नेपोलियन बोनापार्ट ने अपनी विजयों से यूरोप के राजनीतिक मानचित्र और यूरोपीय राज्यों की सीमाओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए थे; अत: जब नेपोलियन को 1815 ई० में वाटरलू के युद्ध में पराजित करके सेण्ट हेलेना द्वीप भेज दिया गया और लुई सोलहवें का भाई araण्ट ऑफ प्रोवेन्स; लुई अठारहवें के नाम से फ्रांस की गद्दी पर आसीन हुआ, तब यूरोप के महान् राजनीतिज्ञों के समक्ष यह समस्या उठ खड़ी हुई कि फ्रांस की सीमाओं का निर्धारण और यूरोप के मानचित्र का पुनर्निर्माण किस प्रकार किया जाए, इस समस्या को सुलझाने के लिए ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में यूरोपीय राज्यों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया।
1. वियना कांग्रेस के सदस्य – वियना कांग्रेस में इंग्लैण्ड के लॉर्ड कैसलरे और लॉर्ड वेलेजली, प्रशा के सम्राट फ्रेड्रिक विलियम तृतीय, हम्बोल्ट, बैरनवान स्टाइन एवं हार्डेनबर्ग, रूस के जार अलैक्जेण्डर प्रथम तथा नेसलरोड, ऑस्ट्रिया के सम्राट फ्रांसिस द्वितीय तथा मैटरनिख, फ्रांस के विदेश मन्त्री तैलरां, पोप कार्डिनल सल्वी आदि व्यक्तियों ने भाग लिया। इनके अतिरिक्त स्वीडन, डेनमार्क, हालैण्ड बवेरिया तथा बर्टमबर्ग आदि राज्यों के शासकों तथा विभिन्न देशों के बुद्धिजीवियों ने भी वियना सम्मेलन में भाग लिया।
इस सम्मेलन की कार्यवाही की अध्यक्षता ऑस्ट्रिया के चांसलर मैटरनिख ने की और सम्मेलन का सम्पूर्ण व्यय फ्रांसिस द्वितीय ने वहन किया।
2. वियना कांग्रेस की समस्याएँ या उद्देश्य – वियना सम्मेलन के समन निम्नलिखित उद्देश्य या समस्याएँ थीं— (i) यूरोप में शान्ति स्थापित करने की समस्या, (ii) फ्रांस की सीमाओं का निर्धारण करने की समस्या, (iii) वैधानिक अधिकार को मान्यता, (iv) फ्रांस के मित्र राष्ट्रों को दण्ड देना, (v) फ्रांस की सैनिक शक्ति में कमी करना, (vi) फ्रांस को दण्ड देना, (vii) यूरोप में शक्ति सन्तुलन स्थापित करना, (viii) चर्च के प्रभाव में वृद्धि, (ix) क्रान्तिकारी तत्त्वों का विनाश।
प्रश्न 4 – नेपोलियन द्वारा किए गए सुधारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर— नेपोलियन बोनापार्ट विश्व महानतम व्यक्तियों में से एक था। उसके असाधारण कार्यों और आश्चर्यजनक विजयों ने 1799 ई० से 1815 ई० तक सम्पूर्ण यूरोप को प्रभावित किया। उसके प्रमुख सुधार निम्नलिखित हैं-
1. शासन सम्बन्धी सुधार – नेपोलियन की शासन व्यवस्था प्रतिभा, व्यापकता और कार्यक्षमता के सिद्धान्तों पर आधारित थी। देश की अराजकता को समाप्त करने के लिए उसने शासन का केन्द्रीकरण कर दिया।
2. आर्थिक सुधार – नेपोलियन ने पेरिस में बैंक ऑफ फ्रांस की स्थापना कराई। मादक द्रव्यों, नमक आदि पर कर लगाया, मजदूरों का वेतन निश्चित किया, चोरबाजारी, सट्टेबाजी, मुनाफाखोरी को समाप्त किया।
3. धार्मिक सुधार — उसने अपने देशवासियों को धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करने का प्रयत्न किया। राज्य की ओर से सभी को अपने धर्म का आचरण करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई थी।
4. न्याय सम्बन्धी सुधार – नेपोलियन ने फ्रांस के लिए विधि संहिताओं का निर्माण करवाया। इसे नेपोलियन कोड के नाम से भी जाना गया। नेपोलियन का यह कार्य फ्रांस को एक स्थायी देन थी ।
5. शिक्षा सम्बन्धी सुधार – नेपोलियन ने शिक्षा के क्षेत्र में बड़े महत्त्वपूर्ण सुधार किए। उसने फ्रांस में राष्ट्रीय शिक्षा की नींव डाली और पेरिस में एक विश्वविद्यालय की स्थापना भी की।
6. सार्वजनिक सुधार – नेपोलियन ने सार्वजनिक हित के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण सुधार किए। उसने बेरोजगारी को दूर किया। आवागमन को सुगम बनाने के लिए 229 पक्की सड़कों का निर्माण कराया।
प्रश्न 5 – इटली के एकीकरण का वर्णन कीजिए। 
उत्तर- इटली का एकीकरण
इटली के एकीकरण के इतिहास को निम्नलिखित सोपानों में विभक्त किया जा सकता है-
1. प्रथम सोपान – वियना कांग्रेस के निर्णयों के अनुसार इटली यूरोप की भौगोलिक इकाई मात्र बन गया था। इटली के छोटे-छोटे राज्यों की जनता राष्ट्रीय भावनाओं से परिपूर्ण होकर अपनी एकता और स्वतन्त्रता की इच्छुक थी, किन्तु इटली के राज्यों के निरंकुश शासक अपनी सत्ता को त्यागने के लिए तैयार न थे। अतः इटली के देशभक्तों ने राष्ट्रीय एकीकरण का आन्दोलन प्रारम्भ किया। कार्बोनरी संस्था के सदस्यों ने इस दिशा में अनेक प्रयत्न किए, किन्तु 1848 ई० तक उन्हें सफलता न मिल सकी। देशभक्त मेत्सिनी ने नेपल्स तथा सिसली विद्रोहों को सफल बनाने का यथासम्भव प्रयास किया, किन्तु उसे अपने लक्ष्य में सफलता न मिल सकी।
2. द्वितीय सोपान – इस सोपान में गैरीबाल्डी और कावूर ने अथक प्रयत्न किए और इटली के एकीकरण को सम्भव बनाया। कांवर कट्टर देशभक्त था। उसके कार्यों के विषय में ग्राण्ट व टेम्परले ने लिखा है—“उसके प्रथम कार्यों में से एक कार्य मिशनरियों का विनाश करना भी था। जिस अर्थ में उस समय ‘उदार’ शब्द का प्रयोग होता था, उसी अर्थ में वह उदारवादी था और उसकी उदारवादिता स्वाभाविक थी । परन्तु इटली के एकीकरण ने सबसे अधिक उसका ध्यान अपनी ओर लगा रखा था। अन्य लोगों से नीति का अन्तर इस दिशा में था कि वह वास्तविकता विश्वास करता था और शासन में आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों का उसे वास्तविक ज्ञान था। वह जानता था कि केवल उत्साह द्वारा अकेला इटली कभी भी स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं कर सकता। उसने चारों ओर मित्रों की खोज करनी आरम्भ कर दी और कूटनीति के सभी उपायों को अपनाया। अपनी कार्य-प्रणाली के कारण उसे मेत्सिनी की कटुता तथा शत्रुता का भी सामना करना पड़ा। मेत्सिनी कावूर की ईमानदारी पर भी सन्देह करता था और उसको मुक्त कराने वाला मन्त्री कहता था जो कि अपने स्वामी को केवल यही परामर्श देता था कि किस प्रकार इटली के एकीकरण को रोका जा सकता है । “
लेकिन कावूर ने अपनी योग्यता में सभी कठिनाइयों को सुलझाया। उसने सार्डीनिया और पीडमाण्ट को अपने सुधारों से अत्यधिक सम्पन्न और शक्तिशाली बना दिया।
कावूर ने क्रीमिया के युद्ध में भाग लेकर फ्रांस तथा इंग्लैण्ड की सहानुभूति प्राप्त की और नेपोलियन तृतीय के साथ 20 जुलाई, 1858 ई० कोलोम्बियर्स का समझौता कर लिया। इस समझौते के अनुसार-
(1) फ्रांस आस्ट्रिया को लम्बार्डी तथा वेनेशिया से निकालने के लिए सार्डीनिया को सैन्य सहायता देगा।
(2) सार्डीनिया इसके बदले में फ्रांस को नीस और सेवाय के प्रदेश देगा।
(3) इटली की सभी जातियों को संयुक्त करके एकीकरण किया जाएगा।
(4) रोम के पोप के अधिकार सुरक्षित रहेंगे।
इस समझौते के अनुसार कावूर ने आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया, किन्तु युद्ध के मध्य नेपोलियन तृतीय ने आस्ट्रिया के साथ विलाफ्रेंका की सन्धि कर ली । विवश होकर विक्टर इमैनुअल को भी आस्ट्रिया के साथ ज्यूरिच की सन्धि करनी पड़ी।
3. तृतीय सोपान – इस सोपान में इटली के एकीकरण के लिए मेत्सिनी तथा गैरीबाल्डी ने महत्त्वपूर्ण कार्य किए। सिसली के विद्रोह से लाभ उठाकर गैरीबाल्डी ने सिसली और नेपल्स पर अधिकार कर लिया और रोम तथा वेनेशिया पर आक्रमण करने की योजना बनाई। इसी समय कावूर ने गैरीबाल्डी पर सन्देह करके पोप के राज्य अम्ब्रिया तथा मार्चेज पर अधिकार कर लिया और नेपोलियन को अपने पक्ष में कर लिया। बाद में गैरीबाल्डी ने इटली के एकीकरण के लिए नेपल्स और सिसली; सार्डीनिया के राजा को प्रदान कर दिए। इसी समय मध्य इटली के राज्य पारमा, मोडेना और टस्कनी भी सार्डीनिया से मिल गए।
4. चतुर्थ सोपान – अब केवल वेनेशिया और रोम इटली में मिलने को रह गए थे। 1866 ई० में आस्ट्रिया और प्रशा के मध्य युद्ध प्रारम्भ हो गया था, जिसका लाभ उठाकर विक्टर ने वेनेशिया को अपने साम्राज्य से मिला लिया। अन्त में रोम पर आक्रमण करके विक्टर इमैनुअल ने उस पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार 20 सितम्बर, 1870 ई० को इटली का राष्ट्रीय एकीकरण पूरा हो गया।
प्रश्न 6 – यूरोप में 1848 की उदारवादियों की क्रान्ति के प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए ।
अथवा 1848 की उदारवादियों की क्रान्ति ने यूरोप के जनमानस को किस प्रकार प्रभावित किया? इसके प्रमुख कारकों का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर : 1848 की उदारवादियों की क्रान्ति और उसके कारक
1848 ई० में जब अनेक यूरोपीय देशों में गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी से ग्रस्त किसान-मजदूर विद्रोह कर रहे थे तब उसके समानान्तर शिक्षित मध्यवर्गों की एक क्रान्ति भी हो रही थी। फरवरी 1848 ई० की घटनाओं से राजा को गद्दी छोड़नी पड़ी थी और एक गणतन्त्र की घोषणा की गई जो सभी पुरुषों के सार्विक मताधिकार पर आधारित था । यूरोप के अन्य भागों में जहाँ अभी तक स्वतन्त्र राष्ट्र-राज्य अस्तित्व में नहीं आए थे जैसे जर्मनी, इटली, पोलैण्ड, ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य वहाँ के उदारवादी मध्यवर्गों में स्त्री-पुरुषों ने संविधानवाद की माँग को राष्ट्रीय एकीकरण की माँग से जोड़ दिया था। उन्होंने बढ़ते जन असन्तोष का लाभ उठाया और एक राष्ट्र-राज्य के निर्माण की माँगों को आगे बढ़ाया। यह राष्ट्र राज्य संविधान, प्रेस की स्वतन्त्रता और संगठन बनाने की स्वतन्त्रता जैसे संसदीय सिद्धान्तों पर आधारित था ।
जर्मन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में राजनीतिक संगठनों ने फ्रैंकफर्ट शहर में मिलकर सर्व- जर्मन नेशनल असेम्बली के पक्ष में मतदान का निर्णय लिया। 18 मई, 1848 ई० को 831 निर्वाचित प्रतिनिधियों ने एक शानदार जुलूस में जाकर फ्रैंकफर्ट संसद में अपना स्थान ग्रहण किया। यह संसद सेण्ट पॉल चर्च में आयोजित की गई थी। उन्होंने एक जर्मन राष्ट्र के लिए एक संविधानं का प्रारूप तैयार किया। इस राष्ट्र की अध्यक्षता एक ऐसे राजा को सौंपी गई जिसे संसद के अधीन रहना था। जब प्रतिनिधियों ने प्रशा के राजा फ्रेड्रिक विलियम चतुर्थ को ताज पहनाने का प्रस्ताव रखा तो उसने उसे अस्वीकार कर उन राजाओं का साथ दिया जो निर्वाचित सभा के विरोधी थे। जहाँ कुलीन वर्ग और सेना का विरोध बढ़ गया, वहीं संसद का सामाजिक आधार कमजोर हो गया। संसद में मध्य वर्गों का प्रभाव अधिक था जिन्होंने मजदूरों और कारीगरों की माँगों का विरोध किया जिससे वे उनका समर्थन खो बैठे। अन्त में सैनिकों को बुलाया गया और एसेम्बली भंग होने पर मजबूर हुई।
उदारवादी आन्दोलन में महिलाओं को राजनीतिक अधिकार प्रदान करने का मुद्दा अत्यधिक विवादास्पद था हालाँकि आन्दोलन में वर्षों से बड़ी संख्या में महिलाओं ने सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया था। महिलाओं ने अपने राजनीतिक संगठन स्थापित किए, अखबार प्रारम्भ किए और राजनीतिक बैठकों और प्रदर्शनों में भाग लिया। इसके बावजूद उन्हें असेम्बली के चुनाव के दौरान मताधिकार से वंचित रखा गया था। जब सेण्ट पॉल चर्च में फ्रैंकफर्ट संसद की सभा आयोजित की गई थी तब महिलाओं को केवल प्रेक्षकों की हैसियत से दर्शक दीर्घा में खड़े होने दिया गया। हालाँकि रूढ़िवादी ताकतें 1848 ई० में उदारवादी आन्दोलनों को दबा पाने में सफल हुईं किन्तु वे पुरानी व्यवस्था बहाल नहीं कर पायीं । राजाओं को यह समझ में आना शुरू हो गया था कि उदारवादी – राष्ट्रवादी क्रान्तिकारियों को रियायतें देकर ही क्रान्ति और दमन के चक्र को समाप्त किया जा सकता है।
• लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – 1804 की नेपोलियन नागरिक संहिता का विवरण. दीजिए ।
उत्तर- 1804 की नागरिक संहिता जिसे साधारणतया नेपोलियन की संहिता के नाम से जाना जाता है, ने जन्म पर आधारित विशेषाधिकार समाप्त कर दिए थे। उसने कानून के समक्ष बराबरी और सम्पत्ति के अधिकार को सुरक्षित बनाया। इस संहिता को फ्रांसीसी नियन्त्रण के अधीन क्षेत्रों में भी लागू किया गया। डच गणतन्त्र, स्विट्जरलैण्ड, इटली और जर्मनी में नेपोलियन ने प्रशासनिक विभाजनों को सरल बनाया, सामन्ती व्यवस्था को समाप्त किया और किसानों को भू-दासत्व और जागीरदारी शुल्कों से मुक्ति दिलाई। शहरों में भी कारीगरों के श्रेणी संघों के नियन्त्रणों को हटा दिया गया। यातायात और संचार व्यवस्थाओं को सुधारा गया।
प्रश्न 2 – 1815 ई० से 1848 ई० तक जर्मनी की एकता के लिए किए गए प्रयास क्यों विफल रहे? .
उत्तर – जर्मनी की एकता या एकीकरण के लिए किए गए प्रयासों की विफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं—
(1) जर्मन राज्यों में पारस्परिक स्पर्द्धा एवं द्वेष । (2) जर्मनी उदारवादियों में मतभेद । (3) आस्ट्रिया और प्रशा की शत्रुता । (4) मैटरनिख का प्रभाव। (5) जर्मन राजाओं का असहयोग । (6) सैन्य शक्ति की कमी। 7 ) योग्य नेता का अभाव। (
प्रश्न 3 – बिस्मार्क कौन था? उसने जर्मनी का एकीकरण किस प्रकार किया ?
उत्तर – बिस्मार्क जर्मनी के महान् पुत्रों में से एक था। उसने प्रशा के प्रधानमन्त्री के रूप में जर्मनी का एकीकरण किया। बिस्मार्क ने ‘रक्त और लौह की नीति अपनाकर सर्वप्रथम श्लेसविग तथा होलस्टीन के प्रशासन पर नियन्त्रण स्थापित किया, फिर आस्ट्रिया को सेडोवा के युद्ध (1866 ई० ) पराजित करके उसने जर्मन राज्यों को उसके प्रभाव से मुक्त करा लिया। तत्पश्चात् बिस्मार्क ने सीडान के युद्ध में फ्रांस के सम्राट नेपोलियन तृतीय को पराजित करकें जर्मनी का एकीकरण पूर्ण कर दिया। 18 जनवरी, 1871 ई० को प्रशा सम्राट विलियम प्रथम महान् जर्मन साम्राज्य का सम्राट घोषित किया गया। 1871 ई० में बिस्मार्क जर्मन साम्राज्य का प्रधानमन्त्री बना। 1890 ई० में जर्मन सम्राट कैसर विलियम द्वितीय से मतभेद हो जाने के कारण बिस्मार्क ने त्याग-पत्र दे दिया। 31 जुलाई, 1898 ई० को 83 वर्ष की आयु में बिस्मार्क की मृत्यु हो गई।
प्रश्न 4- इटली के एकीकरण में कौन-कौन सी बाधाएँ थीं?
उत्तर- इटली के एकीकरण में अनेक बाधाएँ थीं, जिनमें से प्रमुख बाधाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) इटली में बहुत-से राज्य थे और इन राज्यों पर विभिन्न राजवंशों का शासन था।
(2) रोम का पोप एकीकरण के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा था, क्योंकि वह सम्पूर्ण यूरोप की कैथोलिक जनता का धार्मिक नेता था।
(3) इटली के विभिन्न शासकों में पारस्परिक ईर्ष्या तथा वैमनस्य की भावना व्याप्त थी ।
(4) इटली की जनता में राष्ट्रीयता की भावना की कमी थी।
(5) इटली के विभिन्न राजनीतिक दलों में एकता का अभाव था ।
प्रश्न 5 – कार्बोनरी क्या थी?
उत्तर- ‘कार्बोनरी’ का शाब्दिक अर्थ है ‘कोयला जलाने वाले’। वास्तव में ‘कार्बोनरी’ एक गोपनीय समिति का नाम था । मैटरनिख की दमनकारी नीति से असन्तुष्ट होकर इटली के देशभक्तों ने अनेक गुप्त समितियों की स्थापना की थी, जिनमें ‘कार्बोनरी’ नामक समिति सबसे अधिक संगठित तथा शक्तिशाली थी। इस समिति का प्रमुख उद्देश्य आस्ट्रिया को इटली से निकाल बाहर करना था ।
प्रश्न 6 – 1815 ई० से 1848 ई० तक इटली के राष्ट्रीय एकीकरण के प्रयास क्यों विफल रहे?
उत्तर – 1815 ई० से 1848 ई० तक इटली के एकीकरण के प्रयासों की विफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
(1) क्रान्तिकारियों में एकता का पूर्ण अभाव था ।
(2) क्रान्तिकारियों को योग्य नेतृत्व न मिल सका।
(3) इटली के विभिन्न राज्यों में गम्भीर मतभेद था।
(4) यूरोप के शक्तिशाली देश इटली के एकीकरण के पक्ष में नहीं थे।
प्रश्न 7 – फ्रांस में मारीआन की प्रतिमा का क्या महत्त्व था ?
उत्तर – (1) मारीआन फ्रांसीसी गणराज्य का एक प्रतीक चिह्न थी ।
(2) उसकी विशेषताओं को स्वतन्त्रता और गणतन्त्र – लाल टोपी, तिरंगा और कलगी से पर्शित किया गया था।
(3) मारीआन की प्रतिमाएँ सार्वजनिक चौराहों पर लगाई गई ताकि जनता को एकता के राष्ट्रीय प्रतीक की याद आती रहे और लोग उससे तादात्म्य स्थापित कर सकें।
(4) मारीआन की छवि सिक्कों और डाक टिकटों पर अंकित की गई।
• अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – फ्रेड्रिक सॉरयू कौन था?
उत्तर – फ्रेड्रिक सॉरयू एक फ्रांसीसी कलाकार था। 1848 ई० में उसने चार चित्रों की एक श्रृंखला बनाई। इसमें अपने सपनों का एक संसार रचा जो उसके शब्दों में ‘जनतान्त्रिक और सामाजिक गणतन्त्रों से मिलकर बना था ।
प्रश्न 2 – उदारवाद से क्या तात्पर्य है?
उत्तर— उदारवाद शब्द लैटिन भाषा के मूल Liber पर आधारित है जिसका अर्थ है ‘आजाद’ । इसलिए उदारवाद का तात्पर्य है आजादी का व्यवहार |
प्रश्न 3 – इटली के एकीकरण में किन व्यक्तियों का योगदान था? 
उत्तर- इटली के एकीकरण में मेत्सिनी, गैरीबाल्डी, कावूर तथा विक्टर इमैनुअल का योगदान था। मेत्सिनी ने इटली की आत्मा, गैरीबाल्डी ने तलवार, कावूर ने मस्तिष्क तथा विक्टर इमैनुअल ने शरीर बनकर इटली के राष्ट्रीय एकीकरण को पूरा किया।
प्रश्न 4 – ‘यंग इटली’ की स्थापना कब और किसने की?
उत्तर— मेत्सिनी ने 1832 ई० में ‘यंग इटली’ नामक संस्था की स्थापना की थी।
प्रश्न 5 – इटली का राष्ट्रीय एकीकरण कब पूरा हुआ ?
उत्तर – 20 सितम्बर, 1870 ई० को इटली का राष्ट्रीय एकीकरण पूरा हो गया ।
प्रश्न 6 – जर्मन राज्यों में सबसे अधिक शक्तिशाली दो राज्यों के नाम लिखिए।
उत्तर- (1) प्रशा और (2) आस्ट्रिया ।
प्रश्न 7 – आस्ट्रिया और प्रशा के शासक कौन थे?
उत्तर – (1) आस्ट्रिया — फ्रांसिस द्वितीय।
(2) प्रशा – फ्रेड्रिक विलियम चतुर्थ ।
प्रश्न 8 – विलियम प्रथम कौन था?
उत्तर – विलियम प्रथम प्रशा के सम्राट फ्रेड्रिक विलियम चतुर्थ का भाई और रीजेण्ट था। 1858 ई० में वह प्रशा और बाद में जर्मन साम्राज्य का सम्राट बना।
प्रश्न 9 – सेडोवा का युद्ध कब और किनके बीच हुआ?
उत्तर – सेडोवा का युद्ध 1866 ई० में प्रशा और आस्ट्रिया के बीच हुआ था। इस युद्ध में आस्ट्रिया की पराजय हुई |
• बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1 – अर्न्स्ट रेनन कौन था—
(अ) जर्मन दार्शनिक
(ब) फ्रांसीसी दार्शनिक
(स) इटली का दार्शनिक
(द) इंग्लैण्ड का दार्शनिक
उत्तर- (ब) फ्रांसीसी दार्शनिक ।
प्रश्न 2 – वियना कांग्रेस किस वर्ष सम्पन्न हुई-
(अ) 1815 ई० में
(ब) 1715 ई० में
(स) 1915 ई० में
(द) 1615 ई० में ।
उत्तर- (अ) 1815 ई० में।
प्रश्न 3 – इटली का एकीकरण कब सम्पन्न हुआ था-
(अ) 1859-1870 ई० में
(ब) 1870 1874 ई0 में
(स) 1874 1876 ई० में
(द) 1875 1879 ई० में।
उत्तर- (अ) 1859-1870 ई० में।
प्रश्न 4 – ज्युसेपी मेत्सिनी किस देश का क्रान्तिकारी था-
(अ) इंग्लैण्ड
(ब) जर्मनी
(स) इटली
(द) फ्रांस ।
उत्तर – ( स ) इटली ।
प्रश्न 5 – सिलेसियाई बुनकरों ने किस वर्ष विद्रोह किया था-
(अ) 1845 ई० में
(ब) 1846 ई० में
(स) 1847 ई० में
(द) 1849 ई० में।
उत्तर- (अ) 1845 ई० में।
प्रश्न 6 – ‘मारीआन’ किस देश की प्रतीक चिह्न थी-
(अ) फ्रांस
(ब) इटली
(स) जर्मनी
(द) इंग्लैण्ड ।
उत्तर— (अ) फ्रांस ।

मानचित्र आधारित प्रश्न

प्रश्न 1 – वियना कांग्रेस 1815 के उपरान्त के यूरोप को बाह्य रैखिक मानचित्र में प्रमुख देशों के नामों सहित दिखाइए ।
उत्तर— वियना कांग्रेस 1815 के बाद का यूरोप
प्रश्न 2 – दिए गए बाह्य रैखिक मानचित्र में 1858 से पूर्व इटली एकीकरण की ओर जाने वाले राज्यों को नामों सहित अंकित कीजिए।
उत्तर- 1858 से पूर्व इटली एकीकरण की ओर जाने वाले राज्य
प्रश्न 3 – दिए गए मानचित्र में एकीकरण के बाद जर्मनी की स्थिति को वर्षों (years) का उल्लेख करते हुए दिखाइए ।
उत्तर- जर्मनी का एकीकरण

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